गुरुवार, 30 नवंबर 2023

सिर्फ सिलक्यारा नहीं है सुरंग

  जहां हम फंसे है ----

जहां एक तरफ पिछले 17 दिन से उत्तरकाशी के सिलक्यारा में एक सुरंग के मलवे की दीवार के पीछे 41 मजदूर जिंदगी और मौत की जंग लड़ रहे थे,( जो अब सकुशल बाहर आ गये हैं ), वंहीं यह भी एक तथ्य है कि यह कोई पहली घटना नहीं है जहां सुरंग में हादसा हुआ हो ।

7 फरवरी 2021 की रिणी तपोवन की आपदा और उस आपदा में सुरंग के अंदर दफ्न हो गई 200 से ज्यादा जिंदगियां हमारी बहुत जल्द भूल जाने की आदत या भुलवा दिए जाने की तमाम कवायद के वावजूद भी स्मृति में अभी ताजा है । कारण कि तबसे हिमालय में लगातार ऐसी घटनाओं आपदाओं की श्रृंखला.

                                                   (फोटो साभार –न्यू यॉर्क टाइम्स )

इसी तपोवन विष्णुगाड़ जल विद्युत परियोजना की 12 किलोमीटर लम्बी सुरंग में 24 दिसम्बर 2009 को एक हादसा हुआ । जिसमें  सेलंग गांव अथवा सुरंग के पावर हाऊस वाले हिस्से की तरफ से , टनल बोरिंग माशीन की मदद से खोदी जा रही सुरंग में साढ़े चार किलोमीटर की दूरी पर , मशीन के ऊपर एक बड़ा बोल्डर खुदाई के दौरान गिरा । बोल्डर के गिरने के साथ ही उस जगह से  पानी का एक स्रोत फूट पड़ा। जिससे 700 लीटर पानी प्रति सेकण्ड बहने लगा । 

इस घटना के बाद दो अरब रूपये के लगभग की मशीन वहीं फंस गई । काम रुक गया ।

इसके बाद जोशीमठ के जलस्रोतों पर संकट को देखते हुए और परियोजना से होने वाले नुकसान तबाही के आसार की आशंका से उपजे आक्रोश से एक लंबा आन्दोलन  सड़क पर जोशीमठ में  परियोजना के खिलाफ पुनः शुरू हुआ।

इस परियोजना के शुरू होने से पहले भी इसके खिलाफ एक लंबा आन्दोलन चला था । जो कि इन्ही आशंकाओं पर आधारित था जो  2009 में सच हो गई थीं ।

तीन माह के धरना प्रदर्शन के बाद  परियोजना निर्मात्री कम्पनी के साथ एक लिखित समझौता हुआ ।जिसकी मध्यस्थता केन्द्रीय ऊर्जा मंत्री ने की ।जिसमें कम्पनी ने यह स्वीकारते हुए कि, परियोजना की सुरंग से पानी निकलने के कारण जोशीमठ के जल स्रोतों पर असर होगा और भविष्य में पेयजल की किल्लत होगी, जोशीमठ में दीर्घकालिक पेयजल योजना हेतु धन उपलब्ध कराने पर सहमत हुई ।इसके साथ ही जोशीमठ के घर मकानों का बीमा करने (क्योंकि परियोजना की सुरंग से इनमें दरारें आने, टूटने का खतरा था ) पर भी सहमति हुई । इसके साथ ही परियोजना की पुनर्समीक्षा हेतु एक उच्चस्तरीय कमेटी गठन पर भी सहमति हुई ।

इसके बाद टनल बोरिंग मशीन (टी बी एम)  को ठीक करने आगे बढ़ाने के बहुत प्रयास हुए । विदेशों से तमाम इंजिनियर टेक्नीशियन बुलाए गए । मुख्य सुरंग के समानांतर एक बायपास सुरंग खोदी गई , जिससे मशीन के आगे जाकर उसे ठीक किया जा सके । 

उसके बाद कुछ समय के लिए मशीन ने थोड़ा काम किया और कुछ आगे सरकी । लेकिन फिर सन 2012 में सुरंग में एक और पानी का स्रोत फूट पड़ा । जिसके बाद इस सुरंग का कार्य कर रही कम्पनी एल ऐंड टी ( लार्सन एंड टूब्रो) इस काम को छोड़ कर चली गई । उसने परियोजना निर्मात्रि कम्पनी पर धोखा देने या उनको अंधेरे में रखने का भी आरोप लगाया । उनका कहना था कि जहां यह सुरंग बनाई जा रही है यह सुरक्षित क्षेत्र नहीं है, साथ ही मानकों का प्रयोग नहीं किया जा रहा है । जिसके बाद एंटीपीसी ने उनका हर्जाना देकर मामला निपटाया । पिछले 12 साल से इस सुरंग में यह मशीन फंसी है । सुरंग से पानी लगातार निकल रहा है । 2021 की त्रासदी यह सुरंग देख चुकी है । जोशीमठ नगर का धंसाव व संकट इस सुरंग से जुड़ा है । इस सुरंग के ऊपर स्थित गांव में भी धंसाव व दरारें आईं हैं ।

 हम उत्तरकाशी में सुरंग से 41 मजदूरों केसुरंग से  बाहर निकलने की प्रतीक्षा में रहे  .. और रेल की सुंरगों में तेजी से कार्य गतिमान है.. और बहुत सी और सुरंगों की योजना सपने हमारे योजनाकारों की फाइलों में हैं ..हम जो यहां के निवासी हैं इन  सुरंगों के बीच अपनी जिंदगी और घुटन की कल्पना और भविष्य  के बीच.. टकटकी बांधे नजर गड़ाए हैं ..!

( लेख साभार –अतुल सती फेस बुक पेज-https://www.facebook.com/atul.sati.5 )

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शनिवार, 25 नवंबर 2023

गांव छोड़ब नहीं

उड़ीसा के विस्थापन-विरोधी जन आंदोलनों की गाथाएँ

 गाँव छोड़ब नहीं, बड़े बांधों, खनन और औद्योगिक परियोजनाओं के विरुद्ध लोगों के प्रतिरोध के इर्द-गिर्द बुनी गई राजनीतिक और सामाजिक कथाओं का विस्तृत नेरेटिव है।

यह असल में उड़ीसा में विस्थापन और बेदखली की दास्तान है, जिसमें आम किसानों, वनवासियों, मछुआरों और भूमिहीन दिहाड़ी मजदूरों की कहानियों और आख्यानों का उल्लेख है और जो प्रतिरोध इतिहास के कैनवास को परिपूर्ण बनाने में मदद करती है।

पुस्तक में तटीय मैदानों के साथ-साथ दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम उड़ीसा के पहाड़ी और जंगली इलाकों में बसने वाले नायकों और उनके जीवन को चिन्हित करने वाली घटनाओं का वर्णन है।

यह पुस्तक समकालीन समय में पॉस्को और वेदांता जैसे निगमों के प्रवेश से लेकर 1950 के दशक में हीराकुद बाँध के निर्माण तक उड़ीसा में संपूर्ण विकास पथ के हवाले से 1990 के दशक की शुरुआत और वर्तमान समय में नव-उदारीकरण के मद्देनजर, इन प्रतिरोध आंदोलनों की प्रकृति के साथ-साथ स्वतंत्रता के बाद के भारत में, राज्य में औद्योगीकरण की प्रकृति की पड़ताल करती है।

इसमें दर्शाया गया है कि कैसे और क्यों लोग एक व्यापक एवं स्थाई गरीबी वाले राज्य में विकास के रथका प्रतिरोध करते हैं।

इसी जटिल वास्तविकता को उजागर करते हुए, पुस्तक लोगों के एक विशाल वर्ग के बारे में विश्वदृष्टि प्रदान करती है, जिनका जीवन और आजीविका भूमि, जंगलों, पहाड़ों, समुद्रों, नदियों, झीलों, पेड़ों, बेलों और झाड़ियों से जुड़ा हुआ है।

पुस्तक एक व्यापक भूमिका के साथ समग्र कथा को सूचित करने वाले प्रमुख विकास प्रतिमान का संदर्भ और अवलोकन प्रदान करती है। पुस्तक को दस अध्यायों में संरचित किया गया है।

ये अध्याय कालानुक्रमिक रूप से व्यवस्थित किए गए हैं, जो एक ओर समय की अवधि को चिह्नित करते हैं और दूसरी ओर अन्य विषयगत समानताओं में गुँथे हैं।

इस पुस्तक को लिखते हुए लेखकों का प्रयास रहा कि प्रत्येक अध्याय निजी न्यूनतम विश्लेषण के साथ लोगों की आवाजों और साक्ष्यों को समग्रता में प्रस्तुत करे। साक्षात्कारों और आंदोलनों की कथा का प्रस्तुतिकरण वर्णनात्मक शैली में किया गया है।

इस शैली को अपनाने से यह मुमकिन हो पाया कि कहानी अपने दम पर आगे बढ़ती है और इसके पात्रों को सामने रखने में मदद करती है। अर्थात प्रभावित लोगों और उन्हें जिन्होंने समुदाय की ओर से संघर्षों का नेतृत्व करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

इस गाथा को लिखते हुए लेखकों ने इस तरह के संघर्षों से मिलते-जुलते साहित्य का भी इस्तेमाल किया। लिहाजा, देश-विदेश की प्रासंगिक कविताओं और गद्य का यहाँ ख़ूब इस्तेमाल किया गया है।

अध्यायों के संक्षिप्त विवरण

राजधानी भुवनेश्वर के करीब ऐसे कई उभरते इस्पात संयंत्र हैं, जो बरसों से वहाँ रहने वाले स्थानीय समुदायों के प्रतिरोध का सामना कर रहे हैं। साठ के दशक में राउरकेला स्टील प्लांट की स्थापना के बाद, उड़ीसा में दूसरे स्टील प्लांट के लिए कोलाहल हमेशा राजनीतिक गलियारों में सुनाई देता रहा।

कई लोगों के लिए, यह उड़ीसा जैसे पिछड़े राज्य के विकास की कुंजीथा। 1990 में बीजू पटनायक ने चुनावी वादा किया और मुख्यमंत्री बनने के बाद उद्योगपति स्वराज पॉल को संयंत्र स्थापित करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे अब जाजपुर जिले में कलिंगानगर के रूप में जाना जाता है: एक ऐसा नाम जो उड़ीसा के अतीत के गौरव और समृद्धि को दर्शाता है।

कलिंगानगर में आज एक दर्जन से अधिक इस्पात संयंत्र हैं। जगतसिंहपुर जिला भी यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है। यहाँ दक्षिण कोरियाई पोहांग स्टील कंपनी (पॉस्को) के ख़िलाफ़ एक दशक से अधिक समय से संघर्ष चला। खनिजों की आपूर्ति क्योंझर और सुंदरगढ़ के खनिज संपन्न जिलों से होती है। पॉस्को को 2017 में खदेड़ दिया गया, लेकिन जेएसडब्लू के ख़िलाफ़ संघर्ष आज भी जारी है।

अध्याय 1: पान की मुस्कान

उड़ीसा में दक्षिण कोरियाई पोहांग स्टील कंपनी (पॉस्को) की प्रस्तावित योजना से भारत में अनुमानित 52,000 करोड़ रुपये का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आने की अपेक्षा थी।

हालाँकि, इसकी स्थापना के समय से ही, क्षेत्र के लोग परियोजना का विरोध करते रहे हैं। इस विरोध का कारण उनकी आजीविका के श्रोत जैसे पान उत्पादन, धान की खेती और मछली पकड़ने पर पड़ने वाला प्रभाव है।

यहाँ की अधिकांश वन भूमि भी संरक्षित क्षेत्र है। प्रतिरोध आंदोलन को लगातार पुलिस हिंसा का सामना करना पड़ा है। अपीलों, जनप्रतिनिधियों और ज्ञापनों के माध्यम से सरकार के साथ बातचीत आज तक जारी है।

स्थानीय लोगों पर कई पुलिस केसों को थोपा गया है। इस इलाक़े की घेराबंदी भी की गई है, जिसने लंबे समय तक ग्रामीणों को बंधक बनाकर रखा।

रिश्वत, झूठ और फ़रेब के इस्तेमाल और पुलिस और प्रशासन द्वारा लोगों को मुआवज़े के लिए मजबूर करने के लिए गुंडों के इस्तेमाल ने प्रभावी रूप से लोगों के बीच व्यापक दरार पैदा कर दी है।

अध्याय 2: लोहे का स्वाद

कलिंगानगर 2 जनवरी, 2006 को उस वक़्त सुर्खियों में छा गया जब पुलिस गोलीबारी में 13 आदिवासियों की मौत हो गई। इसी दिन टाटा समूह ने अपने स्टील प्लांट के निर्माण के लिए काम शुरू किया था।

यहाँ के लोग, जिनमें अधिकांश आदिवासी हैंधान की खेती और पशुपालन पर निर्भर हैं। वीज़ा, जिंदल, महाराष्ट्र सीमलेस और अन्य निगमों द्वारा इस क्षेत्र में कई स्टील प्लांट बनाए जा रहे हैं।

मुआवज़ा का सवाल यहाँ हमेशा तनाव का स्रोत रहा है। 2006 की घटनाओं के कारण उड़ीसा की राहत और पुनर्वास नीति में नीतिगत परिवर्तन हुआ और अन्य लाभों के साथ-साथ मुआवज़े में भी इज़ाफ़ा किया गया।

हालांकि, ज़मीन के बदले ज़मीन न देने का संकल्प आज तक जारी है। जगतसिंहपुर जिले के संघर्ष की तरह यहाँ भी व्यापक दरारें हैं, जिन्होंने आंदोलन को कमजोर कर दिया है।

नब्बे के दशक के उत्तरार्ध और 2000 के दशक की शुरुआत में विकास प्रतिमान को खुले तौर पर नव-उदारवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने वाली जबरदस्ती और विभाजनकारी रणनीति के रूप में दर्शाया गया।

बॉक्साइट खनन की खोज में राज्य का दमन तेज हो गया। इसके चलते लोगों का प्रतिरोध भी तीव्र हुआ। इन आंदोलनों के समर्थन में एकजुटता की कार्रवाइयाँ बढ़ीं।

अध्याय 3: जुहार नियमराजा

कालाहांडी जिले में नियमागिरी पर्वत, डोंगरिया कोंड ​​के पवित्र देवता नियमराजा का आवास है। पहाड़ बॉक्साइट से भी समृद्ध है, जिस पर वेदांता एल्युमिना लिमिटेड की नज़र है।

इस पहाड़ पर रहने वाले डोंगरिया कोंड समुदाय ​​ने पीढ़ियों से इसका पालन-पोषण किया है।

कंपनी बॉक्साइट खनन की योजना बना रही है, जिसके लिए उसने पहले से ही पहाड़ की तलहटी में एक एल्यूमिना रिफाइनरी संयंत्र स्थापित किया है, जिसे निरंतर प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है।

आदिवासियों के संघर्ष को अंतरराष्ट्रीय समर्थन और एकजुटता मिली है। जब यूएमओई ने वेदांता को मंज़ूरी देने से इंकार कर दिया तो राज्य सरकार को पर्यावरण मंजूरी के लिए भूमि की शीर्ष अदालत में अपील करनी पड़ी।

जब सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को वन अधिकार अधिनियम-2006 के तहत ग्राम सभा आयोजित करने का आदेश दिया, तो चयनित गांवों ने खनन के खिलाफ सर्वसम्मति से फैसला दिया।

हालांकि, इसे लेकर न तो कंपनी और न ही सरकार ने हार मानी है। सुरक्षा बलों की भारी तैनाती के कारण उत्पीड़न और बेतरतीब गिरफ्तारी की घटनाएँ आम हो गई हैं।

यह अध्याय नियमगिरि को बचाने के लिए आदिवासियों के चल रहे संघर्ष पर केंद्रित घटनाओं की पूरी गाथा का अवलोकन प्रदान करेगा।

अध्याय 4: माली का गीत

यह अध्याय बॉक्साइट खनन के खिलाफ रायगड़ा जिले के काशीपुर ब्लॉक के आदिवासी लोगों के संघर्ष का एक व्यापक विवरण प्रस्तुत करता है।

उत्कल एल्युमिना इंटरनेशनल लिमिटेड (यूएआईएल) को आदित्य बिड़ला समूह द्वारा अंततः लोगों के अपनी भूमि और आजीविका पर अपने अधिकारों का दावा करने के लिए एक कड़े प्रतिरोध आंदोलन के रूप में स्थापित किया गया था।

सन् 2001 में मैकुंच में तीन आदिवासियों की हत्या के कारण संघर्ष तेज हो गया और इसके साथ राज्य का दमन भी। संघर्ष के दौरान, समुदाय के भीतर गहरी दरार सहित लोगों द्वारा कई नुकसान वहन किए गए।

रिश्वत, झूठ और धोखे के इस्तेमाल ने आपसी संबंधों के बंधनों को विखंडित कर दिया। लोगों को मुआवजे के लिए राजी करने के लिए इन्हें ज़बरदस्ती इस्तेमाल किया गया था।

इसका दूसरा भयानक रूप था: पुलिस दमन और आतंक एवं डराने-धमकाने के लिए कंपनी के एजेंटों का इस्तेमाल। माओवादियों के प्रवेश तक यह आंदोलन धीरे-धीरे कम होता गया और अधिक दमन की ओर अग्रसर हुआ।

इस अध्याय में प्रतिरोध आंदोलन में शामिल कई लोगों के स्मरण और प्रतिबिंब के आधार को शामिल किया गया है।

भारत में नव-उदारवादी युग की शुरुआत उड़ीसा में हुई, जब राज्य सरकार ने चिल्का और गोपालपुर में निजी क्षेत्र के लिए मार्ग प्रशस्त किया।

नब्बे के दशक में टाटा समूह के खिलाफ दो प्रमुख जन आंदोलन अपनी जमीन और आजीविका की रक्षा के लिए लोगों के प्रतिरोध के उदय के साथ इस कदम को फिर से विफल करने में सफल रहे।

अध्याय 5: केवड़ा के देस से

नब्बे के दशक के मध्य में गोपालपुर में सरकार द्वारा प्रस्तावित स्टील प्लांट के खिलाफ एक मजबूत जन आंदोलन का उदय हुआ।

जापान में टिस्को और निप्पॉन स्टील के इस संयुक्त उद्यम की स्थापना को चुनौती देने के लिए केवड़ा की खेती और मछली पकड़ने पर निर्भर स्थानीय आबादी का आयोजन किया गया।

यह अध्याय दर्शाता है कि कैसे एक और आंदोलन अत्यधिक उपजाऊ और घनी आबादी वाले क्षेत्र को बचाने में टाटा की योजनाओं को विफल करने में सफल रहा।

अध्याय 6: चिल्का तीरे

यह अध्याय मत्स्यबी महासंघ और चिल्का बचाओ आंदोलन के बढ़ते प्रतिरोध को दर्शाता है, जब उड़ीसा सरकार ने 1991 की शुरुआत में झींगा खेती परियोजना के लिए टाटा को आमंत्रित किया।

चिल्का एशिया का सबसे बड़ा जल लैगून है, जो दो लाख से अधिक आश्रितों के साथ 50,000 से अधिक मछुआरों का आवास है। प्रतिरोध आंदोलन विकासके खिलाफ गरीबों का संघर्ष था: विकास का एक स्वरूप जिसने सदियों से उनके सह-अस्तित्व वाले आवास से उन्हें निराश्रित करने की धमकी पेश की। टाटा द्वारा अपने क़दम पीछे हटाने के साथ यह आंदोलन सफल रहा।

यह अध्याय कटक, पुरी और भुवनेश्वर के बड़े व्यापारियों द्वारा गठित मछली पकड़ने के माफिया के आज तक जारी अत्याचार पर भी प्रकाश डालता है।

अस्सी के दशक में दो ऐतिहासिक जन आंदोलन हुए। गंधमार्धन आंदोलन उड़ीसा में सबसे पहले खनन-विरोधी आंदोलनों में से एक था, जिसने भारत एल्युमिनियम लिमिटेड कंपनी (बाल्को) की बॉक्साइट खनन योजनाओं को विफल किया।

इसके अलावा, भारत सरकार द्वारा नेशनल टेस्ट रेंज की स्थापना के खिलाफ बलियापाल इलाक़े में किया गया संघर्ष, टेस्ट रेंज को रोकने में भी उतना ही सफल रहा।

अध्याय 7: शंख और मिसाईल

यह अध्याय अस्सी के दशक के मध्य में शुरू हुए बलियापाल आंदोलन का दस्तावेजीकरण करता है, जब क्षेत्र के लोग मिसाइल परीक्षण रेंज के पर्यावरण और उनके जीवन और आजीविका पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में जागरूक हुए।

इस क्षेत्र में बालासोर जिले में सुबर्णरेखा नदी के दोनों किनारों पर बलियापाल और भोगराई ब्लॉक शामिल हैं। धान, पान की बेल के उत्पादन और मछली पकड़ने पर निर्भर बलियापाल के लोग केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित रेंज की स्थापना के विरुद्ध एकजुट हो गए।

इस आंदोलन का हिस्सा रहे लोगों की गवाही और स्वरों के आधार पर, अध्याय भूमिहीनों और मछुआरे लोगों की दुर्दशा और उनकी वर्तमान दुर्दशा को भी गंभीर रूप से देखता है।

अध्याय 8: जय गंधमार्धन

यह अध्याय बॉक्साइट खनन के लिए बाल्को के निर्माण कार्य के खिलाफ स्वत:स्फूर्त आंदोलन का दस्तावेजीकरण करता है। गंधमार्धन पर्वत तीन जिलों के जंक्शन पर स्थित है: बरगढ़, बोलांगीर और नुआपाड़ा।

यह इलाक़ा औषधीय पौधों और जड़ी-बूटियों की एक विशाल विविधता का स्थल होने के अलावा, अपने पहाड़, जंगलों और नदियों के साथ क्षेत्र के लोगों के लिए जीविका और आजीविका का अहम् स्रोत है।

यह एक तीर्थ स्थान भी है क्योंकि इसमें दो महत्वपूर्ण मंदिर हैं। इस अध्याय में पर्यावरणीय पहलुओं के साथ-साथ पहाड़ के साथ लोगों के धार्मिक और आध्यात्मिक संबंधों पर भी प्रकाश डाला गया है, जिसने प्रतिरोध आंदोलन को प्रेरित किया।

भारत में बड़े बांधों की योजना किसानों और भूमिहीनों के लिए असंख्य कठिनाइयों से भरी है। विकास के इस नेहरूवादी मॉडल की खामियां, उड़ीसा के संदर्भ में हीराकुद  और रेंगाली बाँध के शिकार लोगों की कथाओं के माध्यम से सामने आती हैं, जिनका पुनर्वास कभी पूरा ही नहीं हो पाया।

अध्याय 9: रेंगाली की भूली- बिसरी दास्तान

रेंगाली बाँध परियोजना को 1971 की विनाशकारी डेल्टा बाढ़ के कारण पुनर्जीवित किया गया था। बाँध की आधारशिला 1973 में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी द्वारा रखी गई थी।

वर्तमान के अंगुल जिले में ब्राह्मणी नदी पर निर्मित, उक्त परियोजना 1985 में पूरी हुई। यह अध्याय लोगों के उस प्रतिरोध का दस्तावेजीकरण करता है, जो सत्तर के दशक में लोगों ने अपनी भूमि और आजीविका के नुकसान के चलते किया था।

यह एक ऐसा प्रतिरोध आंदोलन था, जिससे बाहरी दुनिया पूरी तरह अनभिज्ञ थी। इस अध्याय में विस्थापितों के साक्षात्कारों के ज़रिए और उनकी वर्तमान दुर्दशा पर प्रकाश डालते हुए मुआवजे के रूप में भूमि के बदले भूमिकी नीति का महत्वपूर्ण अवलोकन मिलता है।

उनकी स्मृतियाँ और साक्ष्य उड़ीसा में प्रतिरोध के इतिहास में एक महत्वपूर्ण खाई को भरती हैं।

अध्याय 10: हीराकुद: एक अभिशप्त हीरा

उड़ीसा में पहली जल-सिंचाई परियोजना के रूप में निर्मित, संबलपुर जिले में महानदी पर हीराकुद बाँध की योजना, अंग्रेजों द्वारा बनाई गई थी।

इसका निर्माण अंग्रेज़ी राज में ही शुरू कर दिया गया था, जिसका उद्घाटन आगे चलकर 1957 में जवाहरलाल नेहरू द्वारा किया गया।

यह अध्याय बड़े बाँधों के निर्माण में अंतर्निहित प्रशासनिक निर्णयों और इनके पीछे की सोच की पड़ताल करता है, जो विकास के नेहरूवादी मॉडल का प्रमुख पहलू था।

इसके निर्माण कार्य को उन किसानों के कड़े प्रतिरोध विरोध का सामना करना पड़ा, जिनकी जमीनें जलमग्न होने वाली थीं। विस्थापित भुक्तभोगियों द्वारा सुनाई गई राहत और पुनर्वास की कहानियाँ मार्मिक और भयावह है।

इस अध्याय में विस्थापितों की कठिनाइयों को व्यक्त किया गया है। उनकी कठनाइयाँ जारी हैं और उन्हें आज तक मुआवज़े से वंचित रखा गया है।

और अंत में इसी पुस्तक से “आने वाली पीदियोंके लिए सपने संजोते हुए , लोग साहस और द्र्दता के साथ कॉर्पोरेट लालच का विरोध कर रहें हैं . भले ही आज राह धुंधली या दुर्गम क्यों न हो ,वे फिर भी एक बेहतर भविष्य का सपना देखते हैं .हमारी यह पुस्तक शायद एक यात्रा भी है और एक तलाश भी, जंहा हम खुद से व् आप सब से  यह पूछते हैं :क्या हम इस “अंधे युग” को यूँ ही जारी रहने देंगे ?

रंजना पाड़ी और निगमानंद षडंगी दुआरा इंग्लिश में लिखी पुस्तक "Resisting Dispossession :The odisha Story" का हिंदी में बेहतरीन अनुवाद राजेंद्र सिंह नेगी ने किया है  और आकार बुक्स ,दिल्ली (www.aakarbooks.com) ने इसका प्रकाशन किया है ..  

( साभार –वर्कर्स यूनिटी ,जन चौक )

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पानी पत्रक (129 - 26 नवम्बर  2023) जलधारा अभियान, 221,पत्रकार कॉलोनी,जयपुर-राजस्थान,302020,संपर्क-उपेन्द्रशंकर-7597088300.मेल-jaldharaabhiyan.jaipur@gmail.com



 

  

पाकिस्तान की कृषि बर्बाद हो रही है: आर्थिक सर्वेक्षण ने सरकारी नीतियों की विफलता को उजागर किया

पाकिस्तान का कृषि क्षेत्र ढह रहा है - और इसका दोष पूरी तरह से शहबाज शरीफ सरकार की विनाशकारी नवउदारवादी नीतियों पर है। संघीय बजट से पहले 9 ज...