सोमवार, 25 मार्च 2024

क्या भारत के मेगाप्रोजेक्ट से

 बरबाद हो जाएगा ग्रेट निकोबार द्वीप ?

(भारत सरकार, प्राचीन ग्रेट निकोबार द्वीप पर अपना खुद का "हांगकांग" बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। जबकि पर्यावरण और आदिमजाति आधिकार, कार्यकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि इसका प्रभाव पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने से कहीं आगे तक जा सकता है - यह द्वीप के आदिमवासियों के लिए विलुप्ति का कारण बन सकता है।)

 ग्रेट निकोबार अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का हिस्सा है जो बंगाल की खाड़ी के पूर्वी किनारे को चिह्नित करता है

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार भारत के ग्रेट निकोबार द्वीप को एक विशाल सैन्य और व्यापार केंद्र में बदलने के लिए  9 अरब डालर (€ 8.38 बिलियन) का निवेश करने की योजना बना रही है। लेकिन इस योजना ने पर्यावरणविदों, मानव वैज्ञानियों,  वैज्ञानिकों, आदिमजाति आधिकार कार्यकर्ताओं और  नागरिक संगठनों के बीच चिंताएं बढ़ा दी हैं, जिनका मानना है कि यह मेगाप्रोजेक्ट सुदूर क्षेत्र की अनूठी पारिस्थितिकी को बर्बाद कर देगा।

पारिस्थितिक चिंताओं से परे, कई लोग इस प्रोजेक्ट का आदिम समुदायों पर प्रभाव से डरते हैं - विशेष रूप से शोम्पेन लोग पर,( एक शिकारी समुदाय)जो हजारों वर्षों से ग्रेट निकोबार में बहुत कम बाहरी संपर्क के साथ रह रहे हैं।

भारत की पूर्वी चौकी

भारतीय अधिकारियों का कहना है कि ग्रेट निकोबार को विकसित करने की योजना हिंद महासागर में चीन की बढ़ती आक्रामकता से प्रेरित है, यह देखते हुए कि द्वीप की रणनीतिक स्थिति इसे सुरक्षा और व्यापार के लिए महत्वपूर्ण बनाती है।

यह द्वीप भारत की मुख्य भूमि से लगभग 1,800 किलोमीटर (1,120 मील) पूर्व में, इंडोनेशिया के सुमात्रा के करीब और म्यांमार, थाईलैंड और मलेशिया से केवल सैकड़ों किलोमीटर दूर स्थित है। वर्तमान में इसमें लगभग 8,000 निवासी हैं।

भारत सरकार द्वारा अनुमोदित योजनाओं में एक अंतरराष्ट्रीय कंटेनर टर्मिनल के निर्माण की परिकल्पना की गई है; सैन्य और नागरिक उद्देश्यों के लिए दोहरे उपयोग वाला हवाई अड्डा; एक गैस, डीजल और सौर-आधारित बिजली संयंत्र; और 1,000 वर्ग किलोमीटर के द्वीप पर एक ग्रीनफ़ील्ड टाउनशिप। इन विकासों से द्वीप की जनसंख्या भी हजार से हजारों में पहुंच जाएगी।


अधिकारियों का कहना है कि द्वीप की गैलाथिया खाड़ी पर स्तिथ  होने वाला बंदरगाह
, दुनिया के सबसे व्यस्त शिपिंग लेन में से एक, मलक्का जलडमरूमध्य के करीब होने के कारण खूब फलेगा-फूलेगा।

योजनाएं तेज गति से आगे बढ़ रही हैं, सरकार पिछले तीन वर्षों में विभिन्न अनुमोदन, मंजूरी और छूट हासिल करने में कामयाब रही है, जिससे कुछ लोगों ने ग्रेट निकोबार में भारत के अपने "हांगकांग" के निर्माण के रूप में इस परियोजना की प्रशंसा की है।

भारत के बंदरगाह, जहाजरानी और जलमार्ग मंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने संवाददाताओं से कहा कि द्वीप के विकास को आगे बढ़ाने के बारे में सरकार के पास कोई दूसरा विचार नहीं है।

सोनोवाल ने कहा, "यह सच है कि विभिन्न सम्मुहों ने पर्यावरण संबंधी चिंताएं उठाई हैं, लेकिन उन्हें स्पष्ट रूप से संबोधित किया गया है।"

वर्षावनों को काटना

हालाँकि, आलोचकों का कहना है कि इस पहल से ग्रेट निकोबार के प्राचीन वर्षावनों को अपूरणीय क्षति होगी। भारत सरकार के अनुसार, इस द्वीप में "दुनिया के सबसे अच्छे संरक्षित उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों में से एक" है, लेकिन इसे रक्षा और व्यापार केंद्र में बदलने की योजना का मतलब लगभग 852,000 पेड़ों को काटना होगा।

पर्यावरणविदों ने चेतावनी दी है कि गैलाथिया खाड़ी का बड़ा बंदरगाह लेदर बैक समुद्री कछुओं के लिए, अंडे देने के,संवेदनशील क्षेत्र को नष्ट कर देगा। कछुओं के अंडे देने के स्थानों के अलावा, प्रस्तावित ड्रेजिंग से डॉल्फ़िन और अन्य प्रजातियों को नुकसान होगा, और खारे पानी के मगरमच्छ, निकोबार केकड़े खाने वाले मकाक और प्रवासी पक्षियों को भी द्वीप के विकास का खामियाजा भुगतना पड़ेगा।

भारत के प्रबंधन उपकरण ,एन्विरोंमेंटल इम्पैक्ट असेसमेंट ( ईआईए) ने चेतावनी दी है कि बंदरगाह के निर्माण के दौरान ड्रेजिंग द्वारा खाड़ी के तट के किनारे मूंगा चट्टान को नष्ट किया जा सकता है। ईआईए ने एक मसौदा रिपोर्ट में कहा कि टाउनशिप, हवाई अड्डे और थर्मल पावर प्लांट सभी घने वन क्षेत्र वाले क्षेत्रों में बनाए जाएंगे, जो जैव विविधता को महत्वपूर्ण हद तक  प्रभावित करेंगे।

इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि कार्यकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि घटते प्राकृतिक संसाधनों के साथ बड़े पैमाने पर जनसांख्यिकीय बदलाव से आदिम  समुदाय खतरे में पड़ जाएंगे और संभवतः समाप्त हो जाएंगे।

शोम्पेन समुदाय विलुप्त होने के कगार पर?

लंदन स्थित सर्वाइवल इंटरनेशनल, एक मानवाधिकार संगठन जो स्वदेशी और आदिवासी लोगों के अधिकारों के लिए अभियान चलाता है, ने लगभग 300 लोगों की संख्या वाली एक स्थानीय जनजाति शोम्पेन के लिए होने वाले जोखिम की ओर इशारा किया है। समूह ने कहा कि शोम्पेन्स का पूरी तरह से विलुप्त होने का खतरा है।

सर्वाइवल इंटरनेशनल के निदेशक कैरोलिन पीयर्स ने डीडब्ल्यू को बताया, "यह कल्पना करना असंभव है कि शोम्पेन अपने द्वीप के इस विनाशकारी परिवर्तन से बच पाएंगे। अगर भारत के अधिकारी द्वीप को 'भारत के हांगकांग' में बदलने की अपनी महत्वाकांक्षा में सफल हो जाते हैं।" , "भविष्य के निवासियों को पता होना चाहिए कि यह शोम्पेन की कब्रों पर बनाया गया था, अनादि काल से जिनकी यह मातृभूमि से रही है।"

सर्वाइवल इंटरनेशनल का कहना है कि अन्य शिकारियों की तरह, शोम्पेन को अपने जंगल का गहन ज्ञान है और वे द्वीप की वनस्पतियों का कई तरीकों से उपयोग करते हैं।

भूकंप-प्रवण क्षेत्र में जा रहे हैं

इस महीने की शुरुआत में, दुनिया भर के दर्जनों विद्वानों ने भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को एक खुले पत्र में समान चिंता व्यक्त की, उनसे निर्माण रोकने का आग्रह किया और अपेक्षित जनसांख्यिकीय बदलाव से उत्पन्न जोखिमों की ओर इशारा किया। हस्ताक्षरकर्ताओं, जिनमें नरसंहार अध्ययन के विशेषज्ञ भी शामिल थे, ने चेतावनी दी कि अनुमानित 650,000 बसने वालों, या जनसंख्या में 8,000% की वृद्धि का मतलब शोम्पेन का अंत होगा।

यूके यूनिवर्सिटी के फेलो मार्क लेवेने ने कहा, "लोग इस (नये ) ढांचे के भीतर अपनी शर्तों पर जीवित नहीं रह पाएंगे। और वहां रहने वाले लोग न केवल शारीरिक रूप से पीड़ित होंगे, बल्कि वे मानसिक रूप से भी नष्ट हो जाएंगे। यह उन्हें मार डालेगा।"

 केवल स्थानीय जनजातियाँ ही खतरे में नहीं हैं। जनसंख्या के बड़े पैमाने पर प्रवासन का अर्थ यह भी होगा कि लाखों लोगों को दुनिया के सबसे खतरनाक भूकंपीय क्षेत्रों में से एक में डाल दिया जाएगा। 2004 में, ग्रेट निकोबार क्षेत्र में रिक्टर स्केल पर 9.3 तीव्रता का भूकंप आया था, जिससे रिकॉर्ड किए गए इतिहास की सबसे घातक सुनामी शुरू हो गई थी।

                                       ( डीडव्लू.कॉम पर मुरली कृष्णन के लेख का हिंदी अनुवाद,चित्र –द हिन्दू से साभार )

 पानी से संबंधित सूचनाओ,समाचारों और सन्दर्भों का संकलनपानी पत्रक           

पानी पत्रक (146-26 मार्च 2024) जलधारा अभियान, 221,पत्रकार कॉलोनी,जयपुर-राजस्थान,302020,संपर्क-उपेन्द्रशंकर-7597088300.मेल-jaldharaabhiyan.jaipur@gmail.com



शुक्रवार, 22 मार्च 2024

पानी संकट के आहट

की अनदेखी घातक होगी

बेंगलोरे के राजाराजेश्वरीनगर में 'वाटर एटीएम' पर पीने योग्य पानी के लिए कतार में खड़े लोग

( साभार –इंडियन एक्सप्रेस )

दुनिया की 17 प्रतिशत आबादी अकेले भारत में है, ऐसा माना जा रहा है कि 2050 तक पानी एक विकराल समस्या के रूप में सामने होगा। जनसंख्या में वृद्धि, शहरीकरण, औधोगिककरण, जलवायु परिवर्तन और अकुशल जल प्रबंधन जैसे कारकों की वजह से आने वाले समय में पानी की कमी से गंभीर और दुरगामी परिणाम हो सकते हैं। सन् 2002 के आंकड़ों के अनुसार भारत की लगभग 66 करोड़ की आबादी 12 नदी बेसिनों के आसपास बसी है और इस पर निर्भर है। सन् 2050 तक इन 12 नदी बेसिनों 120 करोड़ लोगों का बोझ होगा। सन् 2002 में नर्मदा बेसिन की आबादी 1.79 करोड़ था जो सन् 2050 तक 2.9 करोड़ हो जाएगा। करोड़ों रुपये नदियों को प्रदुषण मुक्त करने के नाम पर खर्च हो चुके हैं, लेकिन अभी तक कोई भी सरकार यह दावा करने में समर्थ नहीं हो पाई है कि अपने यहां से बहने वाली नदियों को प्रदुषण मुक्त कर दिया है। भयावहता का अंदाज़ा केन्द्रीय प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड के इस आकलन से लगाया जा सकता है कि देश की 450 में से 350 नदियां प्रदुषित हैं। नदियां महज जल स्रोत ही नहीं है, भारत सहित कई देशों में यह सांस्कृतिक पहचान के साथ धार्मिक आस्था का प्रतीक है। लेकिन बढते प्रदुषण का जहर इन जीवन धाराओं को जहरीला बना रहा है और इंसानी स्वास्थ्य पर असर डाल रहा है। एक अध्ययन से पता चला है कि नाईट्रोजन प्रदुषण के चलते अगले 26 वर्षों में दुनिया भर में साफ पानी की भारी किल्लत हो सकती है। इकोलॉजीकल थ्रेड रजिस्टर 2020 के अनुसार भारत में करीब 60 करोड़ लोग आज पानी की जबरदस्त किल्लत का सामना कर रहे हैं। इंटरनेशनल यूनियन फाॅर कंजर्वेशन ऑफ नेचर द्वारा जारी नए विश्लेषण के अनुसार वैश्विक स्तर पर ताजे पानी में पाई जाने वाली मछलियों की करीब एक चौथाई प्रजातियों प्रदुषण के कारण विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। दुनिया भर में उपलब्ध कुल ताजा पानी में केवल 4 प्रतिशत भारत के पास है। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट की रैंकिंग के मुताबिक दुनिया के सबसे जल निर्धन देशों की सूची वाले 17 देशों में भारत 13वें स्थान पर है।आंकड़ों के अनुसार 1960 में पूरे में 30 लाख ट्यूबवेल थे। अगले 50 वर्षों में 30 करोड़ पहुँच गई। जिसके कारण भूगर्भीय जल पाताल में जा रहा है। भारत ने 2022 में भूजल पर निर्भरता को आंशिक रूप से कम किया है लेकिन पंजाब, राजस्थान, हरियाणा व दिल्ली लगातार रीचार्ज से अधिक भूजल का दोहन कर रहे हैं। 

                दूसरी ओर दुनिया भर में पानी के कारोबार से मुनाफा कमाने का जबरदस्त उधोग फल फूल रहा है। मोटे अनुमान के अनुसार, दुनिया भर में सिर्फ बोतल बंद पानी से की जाने वाली कमाई का आंकड़ा 270 बिलियन डॉलर (लगभग  22 लाख 41 हजार करोड़) के आसपास है। जबकि 2022 की रिपोर्ट अनुसार भारत में यह कारोबार 1.80 लाख करोड़ का हो गया है। हर साल भारतीय 35 अरब लीटर पानी खरीद कर पी रहे हैं। प्रत्येक वर्ष इसमें 18 प्रतिशत बढोत्तरी होना अनुमानित है।

1993 से हर साल 22 मार्च को आयोजित होने वाला विश्व जल दिवस, मीठे पानी के महत्व और उसके संरक्षण पर केन्द्रित करने वाला एक बार्षिक संयुक्त राष्ट्र दिवस है। विश्व जल दिवस 2024 के लिए मुख्य संदेश है कि"पानी शांति पैदा कर सकता है या संघर्ष भङका सकता है।"

                                               (राज कुमार सिन्हा-बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ)

 

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सोमवार, 18 मार्च 2024

ग्रेट निकोबार द्वीप पर मेगाप्रोजेक्ट

रोकने के सम्बन्ध में दो पत्र

शोम्पेन पृथ्वी पर सबसे अलग-थलग जनजातियों में से एक है। वे भारत में ग्रेट निकोबार द्वीप पर रहते हैं, अभी उनकी संख्या  100 और 400 के बीच में आंकी जा रही है . उनमें से अधिकांश बाहरी लोगों के साथ किसी भी तरह के संपर्क में नहीं हैं और इसके लिये इनकार भी करते हैं

अब उनके छोटे से द्वीप को "भारत के हांगकांग" में बदलने की भारत सरकार की "मेगा-विकास" योजना द्वारा पूरी तरह से बदल  दिए जाने का खतरा है।

यदि परियोजना आगे बढ़ती है, तो उनके अद्वितीय वर्षावन का बड़ा हिस्सा नष्ट हो जाएगा. क्योकि ग्रेट निकोबार द्वीप पर एक मेगा-पोर्ट का निर्माण  किया जाएगा; साथ ही  एक नया शहर; एक अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा; एक पावर स्टेशन; एक रक्षा आधार; एक औद्योगिक पार्क बनाये जाने की योजना है और 650,000 निवासी (बाहरी ) यानि लास वेगास के आकार की आबादी, को बसाने की भी .

 बाहरी दुनिया से संपर्क न करने वाली जनजातियाँ ग्रह पर सबसे कमज़ोर लोग हैं और शोम्पेन, अपने द्वीप के इस भारी और विनाशकारी परिवर्तन से बच नहीं पाएंगे।

इस मेगा प्रोजेक्ट को निरस्त करने के प्रयासों में लिखे गये पत्रों में से दो पत्र, आपके समक्ष रख रहें हैं .दोनों पत्र बहुत ही जिम्मेदार ,अनुभवी और ख्याति प्राप्त और अपने कार्य छेत्र के विशेषग्य लोगों दुआरा लिखे गये हैं .

पहला पत्र

नरसंहार से सम्वधित अध्ययन करने वाले उनतीस अंतर्राष्ट्रीय विद्वानों ने भारत सरकार को पत्र लिखकर चेतावनी दी है कि एक अलग थलग जनजाति के द्वीप को एक मेगा-पोर्ट और शहर में बदलने की उसकी योजना उन्हें मिटा देगी। पत्र का हिंदी अनुवाद पढिये-

प्रिय राष्ट्रपति मुर्मू,

हम, नरसंहार के अपराध पर विशेषज्ञता रखने वालों के रूप में, अपनी अत्यधिक चिंता व्यक्त करने के लिए लिख रहे हैं कि भारत के ग्रेट निकोबार द्वीप के स्वदेशी शोम्पेन लोगों को नरसंहार का सामना करना पड़ेगा यदि उनके द्वीप को "भारत के हांगकांग" में बदलने की योजना आगे बढ़ती है।

शोम्पेन लोग सैकड़ों नहीं तो हजारों वर्षों से ग्रेट निकोबार द्वीप की समृद्ध प्राकृतिक दुनिया के साथ सद्भाव में रहते आए हैं, विशेषतया  बाहरी लोगों के संपर्क के बिना।

क्या भारत सरकार को , एक अंतरराष्ट्रीय कंटेनर ट्रांसशिपमेंट टर्मिनल, संबंधित बंदरगाह और बंदरगाह सुविधाएं, हवाई अड्डा, बिजली संयंत्र, रक्षा आधार, औद्योगिक क्षेत्र, साथ ही प्रमुख शहरी विकास का प्रस्ताव आगे बढ़ना चाहिए, भले ही सीमित रूप में, हमें विश्वास है कि यह शोम्पेन के लिए मौत की सज़ा होगा, जो नरसंहार के अंतर्राष्ट्रीय अपराध के समान होगी .

इन विकास कार्यों का संचयी प्रभाव और 650,000 निवासियों को उस छेत्र में बसाने बाली प्रस्तावित योजना ,  जनसांख्यिकीय बदलाव, या जनसंख्या में 8,000 प्रतिशत की वृद्धि, शोम्पेन की मृत्यु की घंटी बनेगी । इसका परिणाम सामूहिक मानसिक विघटन होगा, जिससे शोम्पेन लोगों की  जनसंख्या में विनाशकारी गिरावट आएगी।

शोम्पेन - जिनके पास संक्रामक बाहरी बीमारियों के प्रति बहुत कम या कोई प्रतिरक्षा नहीं है -  बाहरी लोगों के संपर्क से जनसंख्या में तेजी से गिरावट आना तय है। संपूर्ण शोम्पेन जनजाति की सामूहिक मृत्यु हो जाएगी। शोम्पेन के विनाश से बचने का एकमात्र तरीका इस परियोजना को छोड़ देना है।

इसलिए हम भारत सरकार और सभी संबंधित अधिकारियों से ग्रेट निकोबार मेगा-प्रोजेक्ट की सभी योजनाओं को तत्काल रद्द करने का आह्वान करते हैं।

सादर,

 

दूसरा पत्र

 70, पूर्व सिविल और भारतीय  विदेशी सेवा सदस्यों ( अधिकारिओं ) ने लिखा है कि यह परियोजना "इस द्वीप की अनूठी पारिस्थितिकी और कमजोर आदिवासी समूहों के निवास स्थान को वस्तुतः नष्ट कर देगी"।

पत्र का हिंदी अनुवाद यहां पढ़ें-

राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के प्रिय अध्यक्ष और सदस्य,

हम अखिल भारतीय और केंद्रीय सेवाओं के पूर्व सिविल सेवकों का एक समूह हैं जिन्होंने अपने करियर के दौरान केंद्र और राज्य सरकारों के साथ काम किया है। व्यक्ति और समूह दोनों के रूप में, हम निष्पक्षता, तटस्थता और भारत के संविधान के प्रति प्रतिबद्धता में विश्वास करते हैं। हम किसी भी राजनीतिक दल के प्रति निष्ठावान नहीं हैं।

27 जनवरी 2023 को, हमने ग्रेट निकोबार द्वीप पर प्रस्तावित बंदरगाह और कंटेनर टर्मिनल के सम्बन्ध में, भारत के राष्ट्रपति को एक खुला पत्र लिखा था, जो इस द्वीप की अनूठी पारिस्थितिकी और कमजोर आदिवासी समूहों के निवास स्थान को लगभग नष्ट कर देगा। लेकिन पर्यावरण और वन मंजूरी में खामियों के बारे में न तो हमारे पत्र और न ही अन्य व्यक्तियों और समूहों द्वारा लिखे गए कई अन्य पत्रों का भारत सरकार पर इस परियोजना की दोबारा जांच कराने में कोई प्रभाव पड़ा है। अभी हाल ही में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने उठाए गए कुछ पर्यावरणीय मुद्दों पर बारीकी से नजर डालने का आदेश दिया है।

आज हम उस पर्यावरणीय और पारिस्थितिक विनाश के बारे में नहीं लिख रहे हैं जो इस परियोजना से होने की संभावना है, बल्कि ग्रेट निकोबार द्वीप के दो जनजातीय लोगों के समूहों के भाग्य के बारे में लिख रहे हैं, अर्थात् शोम्पेन, जो एक विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह है। वे अपने अधिकांश पारंपरिक वन चारागाहों को खो देंगे, और दक्षिणी ग्रेट निकोबारी, एक अन्य अनुसूचित जनजाति, जो पहले से ही 2004 की सुनामी से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं, उन्हें अपने पैतृक गांवों से बाहर निकलना पड़ा और प्रशासनिक केंद्र के करीब बसना पड़ा। द्वीप पर यह परियोजना इन दोनों समूहों के लिए बेहद हानिकारक होगी.

जैसा कि हमें पता चला है, घटनाओं की समय-सीमा के अनुसार, 12 अगस्त 2021 को, जनजातीय कल्याण निदेशालयएक निकाय जिसका उद्देश्य जनजातीय समुदायों के अधिकारों की रक्षा करना और यह सुनिश्चित करना है कि उनके लिये बनी, विभिन्न नियमों और नीतियों को लागू किया जाए ।इस निदेशालय ने एक वचन पत्र जारी किया कि परियोजना के लिए आवश्यक नियमों, कानूनों और नीतियों से कोई भी छूट प्राप्त की जा सकती है . इससे निदेशालय के मूल उद्देश्य का उल्लंघन होगा। एक साल बाद, 12 अगस्त 2022 को, एक विशेष ग्राम सभा की बैठक हुई जिसमें यह निर्णय लिया गया कि द्वीप की सीमाओं के भीतर आदिवासी आरक्षित भूमि का एक हिस्सा "ग्रेट निकोबार के समग्र विकास" के लिए इस्तेमाल किया जाएगा और दूसरे हिस्से में , वर्तमान जनजातीय अभ्यारण्य के बाहर से और द्वीप के एक अलग हिस्से की भूमि, जनजातीय अभ्यारण्य में जोड़ी जाएगी। हम कानून के किसी भी प्रावधान से अनभिज्ञ हैं जो इस तरह के बदलाव की अनुमति देता है ; और यह सब संबंधित जनजातीय समूहों की इच्छा के बिना हो रहा है । चार दिन बाद, 16 अगस्त 2021 को, आदिवासी आरक्षित भूमि के डायवर्जन के लिए एनओसी पर बीडीओ, अंडमान आदिम जनजाति विकास समिति के प्रतिनिधि प्रमुख,  (एएजेवीएस) (शोम्पेन के लिए) और आदिवासी परिषद के अध्यक्ष  द्वारा हस्ताक्षर किए गए । 25 अगस्त 2022 को निकोबारियों को यह ज्ञात हो गया कि जिस भूमि को हस्तांतरित करने पर सहमति हुई है वह उनकी अपनी पूर्व पैतृक घरेलू भूमि है, उन्होंने उपराज्यपाल को पत्र लिखकर अपने सुनामी-पूर्व गांवों चिंगेनह और पुलो बाभी, में स्थानांतरित करने का अनुरोध किया (वर्तमान  परियोजना के बंदरगाह और हवाई अड्डे के लिए प्रस्तावित स्थल )। 23 सितंबर 2022 को डीसी निकोबार की अध्यक्षता में जनजातीय परिषद के साथ उनके स्थानांतरण के मामले पर चर्चा के लिए एक बैठक आयोजित की गई थी । अधिकारियों ने फिर से निकोबारियों को उनके वर्तमान पुनर्वास स्थलों पर सभी सुविधाएं उपलब्ध कराने के वादे के साथ, वापस जाने पर जोर न देने के लिए मनाने की कोशिश की । लेकिन जनजातीय परिषद अपने रुख पर अड़ी रही. इसलिए अधिकारियों द्वारा एक और बैठक आयोजित करने का प्रस्ताव रखा गया. हालाँकि, यह बैठक कभी आयोजित नहीं की गई ।

निकोबारियों के अपनी पैतृक बस्तियों में लौटने के आग्रह के बावजूद, ग्रेट निकोबार समग्र विकास परियोजना को वन मंजूरी और पर्यावरण मंजूरी दोनों क्रमशः 27 अक्टूबर और 11 नवंबर 2022 को दी गईं।  परियोजना में शामिल भूमि में निकोबारियों की मूल घरेलू भूमि शामिल थी। इसके तुरंत बाद, 22 नवंबर 2022 को, जनजातीय परिषद ने अपनी भूमि के डायवर्जन के लिए एनओसी वापस लेने के लिए एक पत्र भेजा, जिसमें उल्लेख किया गया था कि उन्हें पहले सूचित नहीं किया गया था कि विकास के लिए निर्धारित की जा रही भूमि में वे क्षेत्र शामिल थे जहां समूह सुनामी से पहले रहा करते थे । उन्होंने कहा कि वे अपने मूल घरों में पूरी तरह से जंगलों पर निर्भर थे और वे छोटी-मोटी नौकरियों में शारीरिक श्रम करने के बजाय जैसा कि वे वर्तमान में करते हैं,अपनी जमीन पर चारा खोजने और वृक्षारोपण करने और घरेलू पशुओं को पालने के लिए वापस जाना चाहते थे, । उन्होंने कहा कि उनकी भूमि तक पहुंच खोने से उनकी आने वाली पीढ़ियों और उनके 'शॉम्पेन भाइयों' दोनों को नुकसान होगा।

इस प्रकार यह दिखयी देता है कि निकोबारी लगातार अपनी पैतृक मातृभूमि के परिवर्तन के लिए अपनी सहमति देने के लिए तैयार नहीं हैं, जिसका उपयोग उन्होंने 2004 की सुनामी तक किया था। वे अपने सुनामी-पूर्व  क्षेत्रों में वापस भेजे जाने की मांग भी 2007 से कर रहे हैं ।  वे आदिवासी आरक्षित भूमि के परिवर्तन के लिए एक समय पर सहमत हुए थे .परियोजना के लिए उपयोग किए जाने वाले प्रस्तावित क्षेत्रों के बारे में उनकी जानकारी की कमी, उनके अधिकारों के बारे में जागरूकता की कमी और प्रसाशनिक जिद को कारण माना जा सकता है। फिर भी, जनजातीय परिषद (निकोबारियों की) ने अपनी जनजातीय आरक्षित भूमि के परिवर्तन के लिए पहले दी गई सहमति को यथाशीघ्र वापस ले लिया।

इस बीच, शोम्पेन ने जंगलों में रहना, खेती करना और खाद्य संसाधन एकत्र करना जारी रखा, उन्हें इस बात का जरा भी एहसास नहीं था कि उनके जंगल के कुछ हिस्से, जल्द ही छीन लिए जाएंगे।

परियोजना के लिए आदिवासी आरक्षित भूमि के उपयोग पर आपत्ति जताते हुए कई लोगों ने सरकार को पत्र लिखा है, उनमें भारतीय मानव विज्ञान संघ के मानवविज्ञानी भी शामिल हैं। उन्होंने सार्वजनिक सुनवाई से पहले अंडमान निकोबार प्रदूषण नियंत्रण समिति को पत्र लिखकर परियोजना को मंजूरी देते समय बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता पर जोर दिया, खासकर जहां यह शोम्पेन और ग्रेट निकोबारियों की भूमि से संबंधित है । उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि यदि परियोजना शोम्पेन के आवासों या चारागाहों के बहुत करीब आती है तो क्या नुकसान होगा । उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि निकोबारी अपनी सुनामी-पूर्व बस्तियों में लौटने के लिए उत्सुक थे। फिर भी सावधानी बरतने की इन सभी अपीलों को अनसुना कर दिया गया और इन असहाय जनजातीय लोगों को होने वाले नुकसान के बावजूद परियोजना को मंजूरी दे दी गई।

राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (एनसीएसटी) के रूप में, आपको संविधान के अनुच्छेद 338 के तहत या उस समय लागू किसी अन्य कानून के तहत अनुसूचित जनजातियों को प्रदान किए गए सुरक्षा उपायों के कार्यान्वयन की निगरानी करने का अधिकार है। द्वीपों की जनजातियों के लिए इसका मतलब होगा, अंडमान और निकोबार (आदिवासी जनजातियों का संरक्षण) विनियमन, 1956 . यह विनियमन इन द्वीपों में जनजातियों पर लागू वैधानिक सुरक्षा उपायों को निर्धारित एवं नियंत्रित करता है और इसके साथ असंगत किसी भी कानून, समझौते, अदालती डिक्री या आदेश को खत्म कर देता है। हमारी राय में, वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 और पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 सहित सभी अधिनियम, इन द्वीपों में जनजातियों के इस विनियमन के अधीन होंगे।

संविधान की धारा 338 ए (9) के तहत, केंद्र और प्रत्येक राज्य सरकार को अनुसूचित जनजातियों को प्रभावित करने वाले सभी प्रमुख नीतिगत मामलों पर एनसीएसटी से परामर्श करना है। हम जानते हैं कि ग्रेट निकोबार में कमजोर जनजातियों को उनके पारंपरिक वन और आदिवासी आरक्षित क्षेत्रों से विस्थापित करने वाली एक बड़ी परियोजना के मामले में, यह परामर्श नहीं किया गया है। हमें ख़ुशी है कि इसकी जानकारी होने पर आपके आयोग द्वारा 20 अप्रैल 2023 को अंडमान एवं निकोबार प्रशासन को एक नोटिस भेजकर पंद्रह दिनों के भीतर मामले के तथ्यों को स्पष्ट करने को कहा गया है। यह पत्र केंद्रीय वित्त मंत्रालय के पूर्व सचिव और आदिवासी मामलों के विशेषज्ञ डॉ. ईएएस सरमा की शिकायत पर भेजा गया था.

हम डॉ. सरमा और कई अन्य लोगों की आवाज के साथ अपनी आवाज जोड़ना चाहेंगे जिन्होंने दी गई मंजूरी में कई खामियों और विस्थापन से आदिवासी समूहों को होने वाले नुकसान के बारे में अपनी चिंता व्यक्त की है। हमें उम्मीद है कि आप इस मामले को पूरी तरह से देखेंगे और सुनिश्चित करेंगे कि ग्रेट निकोबार के समग्र विकास के लिए बनाई गई एक परियोजना के परिणामस्वरूप इन अत्यधिक कमजोर आदिवासी समुदायों का विनाश और अंतिम विलुप्ति न हो, जिनका मूल और एकमात्र घर यह द्वीप है।

सत्यमेव जयते

सादर,

संवैधानिक आचरण समूह

(सन्दर्भ -इन्टरनेशनल सर्वाइवल)

  पानी से संबंधित सूचनाओ,समाचारों और सन्दर्भों का संकलनपानी पत्रक    

पानी पत्रक ( 144-19मार्च 2024) जलधारा अभियान, 221,पत्रकार कॉलोनी,जयपुर-राजस्थान,302020,संपर्क-उपेन्द्रशंकर-7597088300.मेल-jaldharaabhiyan.jaipur@gmail.com 

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