गुरुवार, 18 अप्रैल 2024

प्रकृति, लोकतंत्र और युवाओं के बेहतर भविष्य को ध्यान में रखकर करें मतदान

 पर्यावरण संगठनों ने मतदाताओं से की अपील


(यह ऐसा समय है जब मतदाताओं को युवाओं के बेहतर भविष्य के साथ-साथ साफ हवा, पर्यावरण और जल के उनके अधिकार के बारे में सोचना बेहद जरूरी है)

भारत में लोकसभा का चुनावी महाकुम्भ 19 अप्रैल 2024 से शुरू हो रहा है। यह ऐसा समय है जब देशवासी अपने पसंद का नेता चुनने के लिए मतदान की तैयारी कर रहे हैं, लेकिन इस बीच क्या असल मुद्दे उनके जेहन में हैं? यह अपने आप में बड़ा सवाल है।

देश के विभिन्न संगठनों (विशेष कर जल,जंगल ,जमीन और वायु प्रदुषण और पर्यावरण ) ने सभी देशवासियों से अपील की है कि वो मतदान से पहले जीवन की गुणवत्ता में हुई वृद्धि या गिरावट जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर गौर करें। इसके साथ ही इन संगठनों ने पिछले कुछ वर्षों में पर्यावरण, पारिस्थितिकी, रोजगार, नागरिक अधिकार, अभिव्यक्ति की आजादी, लोकतांत्रिक ढांचे आदि के संदर्भ में भी देश, सरकार व राजनैतिक दलों का मूल्यांकन करने का आहवाहन किया है।

इन संगठनों में पर्यावरण, जलवायु, युवा, वन और प्रकृति की सुरक्षा और जागरूकता के मुद्दे पर काम कर रहे संगठन और समूह शामिल हैं। उनके मुताबिक यह ऐसा समय है, जब मतदाताओं को युवाओं के भविष्य के साथ-साथ आने वाले वर्षों में साफ हवा और जल सुरक्षा के उनके अधिकार के बारे में सोचना बेहद जरूरी है, क्योंकि देश पहले ही जलवायु में आते बदलाव, बढ़ता तापमान, जल संकट, अप्रत्याशित बारिश, पिघलते ग्लेशियर और बढ़ता प्रदूषण जैसी अनगिनत समस्याओं से जूझ रहा है।

भारत में पर्यावरण की स्थिति क्या है, इसे हाल ही में 2022 के लिए जारी पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक (ईपीआई) से समझा जा सकता है, जिसमें 180 देशों की लिस्ट में देश को सबसे नीचे रखा गया है। हैरानी की बात है कि इस इंडेक्स में भारत ने कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर बेहद कम स्कोर हासिल किया है।

वहीं दूसरी ओर डेनमार्क, यूनाइटेड किंगडम और फिनलैंड जैसे देश हैं, जिन्होंने इस मामले में सबसे बेहतर प्रदर्शन किया है। इन देशों ने पर्यावरण की सुरक्षा, जैव विविधता और आवास को संरक्षित करने के साथ प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करने वाली नीतियों में लंबे समय से निरंतर निवेश किया है।

बढ़ते प्रदूषण और जल संकट जैसी समस्याओं से जूझ रहा है देश

भारत जो सबसे निचले पायदान पर है, वो वायु गुणवत्ता में आती गिरावट, तेजी से बढ़ता उत्सर्जन, भूजल में गिरावट, प्रदूषण और पानी की कमी से सूखती नदियां और जल स्रोतों के साथ हर जगह लगते कचरे के पहाड़ जैसी पर्यावरण सम्बन्धी अनगिनत चुनौतियों से जूझ रहा है। इतना ही नहीं ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति सबसे संवेदनशील देशों में से भी भारत एक है।

इसमें कोई दोराय नहीं की आज हमारा देश भारी जल संकट का सामना कर रहा है, हमारे 70 फीसदी भूजल स्त्रोत सूख चुके हैं। वहीं इनके पुनर्भरण की दर 10 फीसदी से भी कम रह गई है। चेन्नई, बेंगलुरु जैसे शहर पहले ही पानी की कमी को लेकर सुर्खियों में हैं। वायु गुणवत्ता का आलम यह यह कि स्विस वायु गुणवत्ता निगरानी संगठन आईक्यू एयर ने अपनी रिपोर्ट में भारत को 2023 का तीसरा सबसे प्रदूषित देश घोषित किया है। बता दें कि इससे पहले 2022 में भारत इन देशों में आठवें स्थान पर था। विडम्बना देखिए कि दुनिया के 50 सबसे प्रदूषित शहरों में से 42 भारत में हैं।

हैरानी की बात है कि पर्यावरण की गुणवत्ता में निरंतर आती गिरावट के बावजूद देश में पर्यावरण और प्राकृतिक प्रणालियों की रक्षा के लिए बनाए कई कानून पिछले कुछ वर्षों में बदलावों के चलते कमजोर हुए हैं। हालांकि इसको लेकर व्यापक तौर पर जन विरोध भी हुए हैं।

उत्तर में हिमालय और अरावली में हमारे जल, जंगल, नदियां, पहाड़ और रेगिस्तान इंसानी प्रभावों के चलते गिरावट का सामना कर रहे हैं। ऐसा ही कुछ भारत के मध्य और पूर्वी क्षेत्रों में देखने को मिला है, इनमें हसदेव वन क्षेत्र शामिल हैं। वहीं निकोबार द्वीप समूह और पश्चिमी घाट में पुरातन वर्षावनों का बड़े पैमाने पर दोहन किया गया है।

इन क्षेत्रों में बांध परियोजनाओं के साथ-साथ बड़े स्तर की अन्य संरचनाओं का निर्माण किया गया है। इसी तरह कोयला, पत्थर और रेत खनन ने इन क्षेत्रों का बड़े पैमाने पर दोहन किया है। ऐसे में विषम परिस्थितियों में इन संगठनों ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर देश के विभिन्न राजनीतिक दलों व नेताओं से पर्यावरण को बचाने की मांग की है। उनकी मांग है कि हमारी प्राकृतिक और लोकतांत्रिक विरासत की सुरक्षा के लिए नई प्रतिबद्धता और संवाद जरूरी है।

उन्होंने भारत में 'विकास' की परिभाषा में बदलावों की बात भी करी है। उनका कहना है कि हमारे प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर विकास नहीं होना चाहिए। इससे प्रदूषण को नियंत्रित करने वाले हमारे प्राकृतिक प्रणाली का विनाश हो रहा है। वहीं पानी का गहराता संकट हमारे युवाओं और वन्यजीवों के भविष्य के लिए खतरा बन रहा है, जिससे निपटना जरूरी है।

उनकी मांग है कि हिमालय, अरावली, पश्चिमी और पूर्वी घाटों, तटीय क्षेत्रों, आर्द्रभूमियों, नदी घाटियों, मध्य भारतीय और उत्तर-पूर्वी वन क्षेत्रों में पारिस्थितिक तंत्र और सामुदायिक आजीविका की सुरक्षा सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है। उन्होंने प्राकृतिक क्षेत्रों में कॉर्पोरेट शोषण पर रोक लगाने पर जोर दिया है।

उन्होंने स्थानीय और राष्ट्रीय विकास से जुड़ी सभी निर्णय प्रक्रियाओं में समुदाय और नागरिक समाज को मुख्य रूप में शामिल करने पर जोर दिया है। उनका कहना है कि प्रकृति और उस पर निर्भर समुदाय के अधिकारों के साथ-साथ हमारी भावी पीढ़ियों के अधिकारों को सभी विकास योजनाओं के मूल सिद्धांत के रूप में बनाए रखा जाना चाहिए। उनके मुताबिक ग्राम सभा की सहमति के बिना वन व कृषि भूमि में कोई बदलाव नहीं किया जाना चाहिए।

पर्यावरण एवं प्रकृति के संरक्षण के लिए इन संगठनों ने मांग की है कि 2014 के बाद से पर्यावरण और वन अधिनियमों को कमजोर करने वाले सभी प्रावधानों को बदला जाना चाहिए।

बंद होना चाहिए पर्यावरण को ताक पर रख होता विकास

वहीं पर्यावरण संरक्षण एवं जैव विविधता अधिनियम, वन अधिकार कानून, के साथ प्रकृति और मूल निवासियों के अधिकारों को बनाए रखने वाले सभी कानूनों का पूर्ण और प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित किया जाना चाहिए। उनकी यह भी मांग है कि सभी आर्द्रभूमियों को आर्द्रभूमि (संरक्षण एवं प्रबंधन) नियम, 2010 के तहत अधिसूचित किया जाना चाहिए।

 उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया है कि भारत में सूख चुकी सभी नदियों, जोहड़ों, झीलों, तालाबों और अन्य जल निकायों को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। साथ ही हमारे देश की जल सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करके जल पुनर्भरण के लिए युद्ध स्तर पर काम किया जाना चाहिए।

हिमालय, अरावली और पश्चिमी घाटों में नदियों को जोड़ने वाली परियोजनाओं, बांध निर्माण, सुरंग बनाने के लिए किए जाने वाले विस्फोटों और हमारे पहाड़ों को काटने वाली सभी परियोजनाओं पर रोक लगाईं जानी चाहिए और इन परियोजनाओं को शुरू करने से पहले उनके प्रभावों का मूल्याङ्कन करने और इनके लिए आम लोगों की राय ली जानी चाहिए।

संपूर्ण भारत में शहरीकरण, बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं और व्यवसायीकरण के लिए भूमि उपयोग में बदलाव से पहले क्षेत्रों को ध्यान में रखते हुए विशिष्ट आपदा और क्लाइमेट रिस्क अध्ययन को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।

इसी तरह पहाड़ों पर होते खनन को रोकने के लिए निर्माण गतिविधियों में सतत और वैकल्पिक निर्माण सामग्री के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए नीतियों का तत्काल कार्यान्वयन होना चाहिए। इसी तरह जंगल और आवास क्षेत्रों के आसपास होने वाली सभी खनन गतिविधियों को रोका जाना चाहिए। ताकि इसके लिए किए जाने वाले विस्फोट और खनन गतिविधियों के चलते स्थानीय समुदायों और वन्यजीवों के स्वास्थ्य पर बुरा असर न पड़े और वो सभी शांति से रह सके। इसी तरह प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को हमारी भावी पीढ़ियों के लिए संजोया जा सके।

इन संगठनों ने ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियमों को नियमों को सख्ती से लागू करने पर भी जोर दिया है। उनकी मांग है कि सभी शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में सीवेज और अपशिष्ट जल के सुरक्षित उपचार, पुनर्चक्रण और निर्वहन के लिए एसटीपी और ईटीपी स्थापित किए जाने चाहिए।

उनका कहना है कि हम भारतीयों को यह नहीं भूलना चाहिए कि वास्तव में सुशासन, नीति निर्माण में जनता की भागीदारी को सुनिश्चित करता है। साथ ही यह भ्रष्टाचार और नियमों की अनदेखी को कम करता है। यह एक तरफ जहां प्रेस की आजादी में मददगार होता है साथ ही सार्वजनिक बहस का भी समर्थन करता है। यह पर्यावरण संरक्षण सुनिश्चित करने के लिए जन प्रतिनिधियों के साथ-साथ नागरिकों को भी प्रोत्साहित करता है। सबके साथ से ही देश एक बेहतर कल और सतत एवं न्यायसंगत विकास की राह में आगे बढ़ सकता है।

मतदान सिर्फ राजनैतिक दलों और नेताओं का महज चयन ही नहीं यह प्रकृति की सुरक्षा, बेहतर कल, सभी नागरिकों के संवैधानिक और लोकतांत्रिक अधिकारों की गारंटी और भारत के युवाओं के लिए एक सुरक्षित भविष्य की कुंजी भी है।

सन्दर्भ –डाउन टू अर्थ )

पानी से संबंधित सूचनाओ,समाचारों और सन्दर्भों का संकलनपानी पत्रक                 

पानी पत्रक ( 150-19 अप्रैल 2024 ) जलधारा अभियान, 221,पत्रकार कॉलोनी,जयपुर-राजस्थान,302020,संपर्क-उपेन्द्रशंकर-7597088300.मेल-jaldharaabhiyan.jaipur@gmail.com


सोमवार, 15 अप्रैल 2024

कोशी पीड़ितों के न्याय के सवाल पर

कोशी नव निर्माण मंच ने निकाली सत्याग्रह पदयात्रा

(जनवरी –फरवरी में, कड़ाके की ठंड में, 250 किमी पैदल चलकर 14 दिन में कोशी की फरियाद सुनाने पटना पहुंचेंगे सत्याग्रही। )

 महात्मा गांधी जी के बलिदान दिवस पर 30 जनवरी  2024  को बिहार के सुपौल जिले बैरिया मंच से " गांधी के रास्ते, कोशी पीड़ितों के न्याय के वास्ते"  सत्याग्रह पदयात्रा शुरू हुई इस पदयात्रा को रवाना, देश के अमर बलिदानी शहीद भगत सिंह के भांजे प्रो जगमोहन सिंह जी ने किया। यात्रा चलते हुए सुपौल के गांधी मैदान पहुंची जहां उन्होंने सभा को संबोधित किया। 

यात्रा में सैकड़ो लोग ठंड में चलते हुए, बकौर, सहरसा के नौहट्टा, हाटी, एकार, बलुआहा, मीटिंग करते हुए तरही में समाजवादी नेता परमेश्वर कुअर की जयंती पर उन्हें श्रद्धांजलि देने पहुंचे। वहां से घोंघेपुर में बैठक करते हुए वैज्ञानिक मानस बिहारी वर्मा की स्मृति में कमला नदी पर बने तटबंधों के बीच इटहर कुशेश्वर स्थान में सभा, कमला करेह के बीच के सवालों पर झझरा हाई स्कूल पर सभा हुई। रोसड़ा दलसिंह सराय, महनार, बिद्दूपुर होते हुए  लोगों को जगाते हुए अनेक जगह सभा करते हुए 14 वें दिन 250 किलोमीटर चलकर पटना के गर्दनी बाग पहुंचे जहां सत्याग्रह आयोजित हुआ।  मेधा पाटकर,प्रफुल्ल सामन्त्रा डाक्टर सुनीलम जी यात्रा पटना पहुंचने पर शामिल हो गए थे। संघर्ष और संवाद जारी रखने के संकल्प के साथ 15 फरवरी को सत्याग्रह का समापन हुआ। यात्रा में दीपक ढोलकिया, अरविंद मूर्ति, लोकेंद्र भारती, अवकाश प्राप्त मुख्य अभियंता फुलेंद्र सिंह, राम पुकार महतो, जेएनयू के अवकाश प्राप्त प्रो एसएन मालाकार, उमेश राय इत्यादि वरिष्ठ लोग शामिल रहे। तो इंद्र नारायण सिंह, आलोक राय, सिघेश्वर राय अर्चना सिंह, प्रियंका, बबिता, राहुल यादुका, आरिफ निजाम, संतोष मुखिया, जय प्रकाश, रणवीर, सतीश, संदीप, विद्याकर झा, रजनीश, अरविंद, मणिलाल जैसे अनेक लोग व्यवस्था में लगे थे।यात्रा एवं कोसी नव निर्माण मंच के संयोजकों में प्रमुख  महेंद्र यादव पूरी यात्रा में भी रहे और व्यवस्था में भी .  

     *यात्रा की पृष्ठभूमि *


देश की आजादी के बाद कोसी की बाढ़ से लोगों को राहत दिलाने के नाम पर कोसी को दो पाटों में कैद किया गया, लेकिन लगातार बनते तटबंधों ने अब कोसी को कई पाटों (तटबंधों) में बंद कर दिया है. कोसी नदी पर 1955 में तटबंध बनाने का काम शुरू हुआ जो कि1961-62 में पूरा हुआ . तटबंध बनाकर नदी की धारा को नियंत्रित दिशा दी गई.  हिंदी की ऑनलाइन पत्रिका वायर में मनोज सिघ के मुताबिक , कोसी और उसकी सहायक नदियों पर बने तटबंधों व लिंक रोड की लंबाई अब 706.85 किलोमीटर हो चुकी है.

 प्रसिद्ध नदी विशेषग्य  डॉ दिनेश कुनार मिश्र  के अनुसार ,1963 में कोसी पर तटबंधों के पूरा होने के साथ, कोसी के दोनों तटबंधों के बीच 304 गांवों में लगभग 192,000 की आबादी फंस गई थी। यह संख्या बढ़कर 9,88,000 (2001 की जनगणना) हो गई और तटबंधों के विस्तार के कारण गांवों की संख्या 380 हो गई। यह आबादी 4 जिलों और 13 ब्लॉकों में फैली हुई है।


उस समय यानि 50 के दशक में ,तटबंध के ख़िलाफ़ स्थानीय लोगों ने विरोध प्रदर्शन तक किए थे. कोसी क्षेत्र में अब गांवों की स्थिति तटबंध के अंदर और तटबंध के बाहर से परिभाषित होती है.

 इनके बीच फसे लाखों लोगों का समुचित पुनर्वास आज तक नही किया गया| हर साल ये लोग बाढ़, कटाव की भीषण तबाही भोगने पर मजबूर है । तटबंधों के भीतर हर साल अनेक गांवों के भूगोल ही बदल जाते है | कटाव से उजड़े लोग कभी बांध पर तो कभी इधर-उधर दूसरे की जमीन पर बसने को मजबूर होते है| शिक्षा की बदहाल स्थिति है| अधिकतर इलाकों में एक भी उप-स्वास्थ्य केंद्र इस क्षेत्र में कार्यरत नही है| यहाँ तक कि बच्चों और महिलाओं के बुनियादी टीकाकरण की सुविधा भी उपलब्ध नहीं है।उनकी रैयती जमीन भूमि सर्वेक्षण में सरकारी खाते में दर्ज करने या उलझाने सहित तरह-तरह से परेशान करने के लिए नियम आदेश निकालते रहते है । सर्वे में भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन गया है| उनकी जमीन पर पहले से  4 हेक्टेयर तक पर माफ लगान को भी सरकारी कर्मचारी वसूलते हैं| इन लोगों के कल्याण के लिए बिहार के कैबिनेट और चंद्रकिशोर पाठक कमिटी के प्रस्ताव पर 1987 में गठित कोशी पीड़ित विकास प्राधिकार गायब है। कोशी पीड़ित विकास प्राधिकार के तय कार्यक्रमों में तटबंध के भीतर के लोगों की खेती का विकास, सभी बच्चों को शिक्षा उपलब्ध कराने, स्वास्थ्य की बुनियादी व्यवस्था दिलाने, तटबंध के बीच के छात्रों-युवाओं को सरकारी और प्राइवेट की समूह ग, घ की सभी नौकरियों में लाभान्वित 8 जिलों में 15% आरक्षण देने सहित 17 बिन्दुओं पर कार्य करना था| यह भी सोचने की जरूरत है कि दुनिया की चौथी सबसे ज्यादा गाद लाने वाली नदी के सिल्ट और गाद से नदी के तटबंध के भीतर का तल क्रमशः ऊँचा हो रहा है | कोशी बैराज की उम्र भी 25  वर्ष ही निर्धारित थी | इधर विश्व मौसम विज्ञान केंद्र की रिपोर्ट है कि 100 साल में जो धरती का समग्र तापमान बढने वाला था, वह 5 वर्षो के भीतर बढने की सम्भावना है| इसका असर हिमालय पर पड़ेगा। तेज मुसलाधार वर्षा, बादल फटने, भूस्खलन, भू-क्षरण की घटनाएँ बढ़ने की सम्भावना हैइसका सीधा असर कोशी तटबंध के भीतर के लोगों पर पड़ेगा और उनकी तबाही और बढ़ेगी| बाहर के सुरक्षित लोगों के समक्ष भी कुसहा त्रासदी की भांति कभी भी खतरा आ सकता है, उसकी सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है| सरकार इन नदी और पर्यावरण के गम्भीर सवालों को समझकर इसके अनुकूल नीति अपनाने के बजाय कोशी नदी के पश्चिमी तटबंध की चौड़ाई कम करते हुए सुरक्षा बांध और उसके लिए स्पर निर्माण विश्व बैंक और अन्य एजेंसियों से कर्ज लेकर कर रही है और हाई डैम का रटा-रटाया जुमला उछाल कर अपनी जिम्मेवारियों से इतिश्री कर लेती है|

 कोशी नव निर्माण मंच लगातार शांतिपूर्ण तरीके से महापंचायत और अनेक कार्यक्रम करते हुए कोशी के गम्भीर सवालों और कोशी नीतिगत अन्याय के शिकार लोगों के न्याय की मांग को उठा रहा है पर उस पर अपेक्षित सुनवाई नहीं हो रही हैदेश के प्रमुख विशेषज्ञों ने कोशी नदी घाटी जनायोग का गठन कर इन लोगों के वर्तमान के सवालों पर एक रिपोर्ट दी है। उस रिपोर्ट को सरकार के सभी सम्बन्धित विभागों को दिया गया है परन्तु इस पर कोई ठोस कार्रवाई नही हो रही है|  

कोशी के अलावा कमला, बलान, बागमती( करेह) बुढ़ी गंडक, बाया, गंगा सहित अन्य नदियों और समुदाय के कटाव, विस्थापन, जल निकासी सहित स्थानीय और नदी के जीवन के सवाल भी कम महत्व के नही है। ऊपर से जलवाऊ परिवर्तन के दौर में भविष्य के बढ़ते खतरे है।

 कोशी की प्रमुख मांगे :

1.कोशी तटबंध के बीच के लोगों का सरकार सर्वे कराकर पुनर्वास से वंचित लोगों को पुनर्वास दे साथ ही कोशी बाढ़ कटाव से विस्थापित होकर तटबंध/बांध या आसपास की जमीन में बसे लोगों का भी सर्वे कराकर पुनर्वासित कराया जाए| वैसे परिवार जिनके पुनर्वास स्थलों पर दूसरे के कब्जे है, उन्हें और जिनके परिवार बढ़ने से पुनर्वास छोटा पड़ रहा है, उनको भी पुनर्वास दिया जाए। इस सभी परिवारों को प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ देते हुए उनके घर बनाने के लिए  पैसे भी दिए जाए।

2.कोशी पीड़ित विकास प्राधिकार को सरकार पुनः सक्रिय कर उसे प्रभावी बनाये और उसके पूर्व में वर्णित कार्यक्रमों को को लागू करे।

3(क). तटबंध के भीतर के सभी सभी रैयतो को खेत के बदले उतना ही जमीन तटबंध के बाहर दे या आज के दर से बाहर की उपजाऊ जमीन के समान पूरी ज़मीन का मुआवजा दे।

3(ख) यदि यह तत्काल नहीं कर सकती है तो अविलम्ब चल रहे भूमि सर्वेक्षण में सभी रैयतो की नदी में समाहित जमीन उनके नाम रहे और उसका रकबा उनके खाते में दर्ज हो, उसके लिए निर्मित टूटे लाइन के नक्शे में उनके नम्बर भी अनिवार्य रूप से दर्ज कराने का प्रावधान हो। सरकार 4 हेक्टेयर तक के माफ़ लगान की वसूली पर रोक लगाए और अब तक वसूल की गयी राशि व्याज सहित वापस करें| लगानमुक्ति कानून/आदेश लाकर सम्पूर्ण लगान व सेस माफ करे। साथ ही जमीन का मालिकाना हक किसानों के पास रहे| प्रत्येक साल बाढ़ से उनकी फसलों व जमीन की हुई क्षति का क्षतिपूर्ति दे।

4. कोशी समस्या का पर्यावरण अनुकूल व जन पक्षीय समाधान करे। 

  इन मांगों का समर्थन करते है 

# तटबंध/ बांधो के कारण बाहर के जलजमाव, सीपेज क्षेत्रों से जल निकासी की व्यवस्था की जाए | इसके लिए जलीय कृषि विकास बोर्ड गठित कर उसके अनुकूल कृषि का विकास करते हुए सम्बन्धित किसानों को आवश्यक अनुदान/सहायता दिया जाए|

# सभी कटाव पीड़ितों को सरकारी खर्च पर बसाने के लिए सरकार कानून बनाए।

# जलवायु परिवर्तन की आ रही चेतावनियों को ध्यान में रखते हुए नदी, जल संकट से बचने के लिए-

* सभी नदियों पर बने तटबंधों सहित बुनियादी संरचनाओं की निरपेक्ष विज्ञान सम्मत जनभागीदारी करते हुए समीक्षा की जाए।

* छोटी नदियों के पुनर्जीवन पर कार्य हो

* नदी क्षेत्रों में विकास के कार्य भविष्य की चुनौतियों को देखते हुए किए जाएं।

# नदियों को जीवित इकाई मानते हुए, उनके संरक्षण, संवर्धन के लिए देश भर के जन संगठनों द्वारा निर्मित कानून के मसौदे के आधार पर कानून बनाया जाए।

 

(कोशी नव निर्माण मंच,नदी घाटी मंच ( NAPM)

 पानी से संबंधित सूचनाओ,समाचारों और सन्दर्भों का संकलनपानी पत्रक                

पानी पत्रक ( 149-16 अप्रैल 2024 ) जलधारा अभियान, 221,पत्रकार कॉलोनी,जयपुर-राजस्थान,302020,संपर्क-उपेन्द्रशंकर-7597088300.मेल-jaldharaabhiyan.jaipur@gmail.com

 


 

 

 

 

 

  

पाकिस्तान की कृषि बर्बाद हो रही है: आर्थिक सर्वेक्षण ने सरकारी नीतियों की विफलता को उजागर किया

पाकिस्तान का कृषि क्षेत्र ढह रहा है - और इसका दोष पूरी तरह से शहबाज शरीफ सरकार की विनाशकारी नवउदारवादी नीतियों पर है। संघीय बजट से पहले 9 ज...