पर्यावरण संगठनों ने मतदाताओं से की अपील
(यह ऐसा समय है जब मतदाताओं को
युवाओं के बेहतर भविष्य के साथ-साथ साफ हवा, पर्यावरण और जल के उनके अधिकार के बारे में सोचना बेहद जरूरी है)
भारत में लोकसभा का चुनावी
महाकुम्भ 19 अप्रैल 2024 से शुरू हो रहा है। यह ऐसा समय है जब देशवासी अपने पसंद का नेता
चुनने के लिए मतदान की तैयारी कर रहे हैं, लेकिन इस बीच क्या असल मुद्दे उनके
जेहन में हैं? यह अपने आप में बड़ा सवाल है।
देश के विभिन्न संगठनों (विशेष कर जल,जंगल ,जमीन और वायु प्रदुषण
और पर्यावरण ) ने सभी देशवासियों से अपील की है कि वो मतदान से पहले जीवन की
गुणवत्ता में हुई वृद्धि या गिरावट जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर गौर करें। इसके साथ
ही इन संगठनों ने पिछले कुछ वर्षों में पर्यावरण, पारिस्थितिकी, रोजगार, नागरिक अधिकार, अभिव्यक्ति की आजादी, लोकतांत्रिक ढांचे आदि के संदर्भ
में भी देश, सरकार व राजनैतिक दलों का मूल्यांकन करने का आहवाहन किया है।
इन संगठनों में पर्यावरण, जलवायु, युवा, वन और प्रकृति की सुरक्षा और
जागरूकता के मुद्दे पर काम कर रहे संगठन और समूह शामिल हैं। उनके मुताबिक यह ऐसा
समय है, जब मतदाताओं को युवाओं के भविष्य के साथ-साथ आने वाले वर्षों में
साफ हवा और जल सुरक्षा के उनके अधिकार के बारे में सोचना बेहद जरूरी है, क्योंकि देश पहले ही जलवायु में
आते बदलाव, बढ़ता तापमान, जल संकट, अप्रत्याशित बारिश, पिघलते ग्लेशियर और बढ़ता प्रदूषण
जैसी अनगिनत समस्याओं से जूझ रहा है।
भारत में पर्यावरण की स्थिति क्या है, इसे हाल ही में 2022 के लिए जारी पर्यावरण प्रदर्शन
सूचकांक (ईपीआई) से समझा जा सकता है, जिसमें 180 देशों की लिस्ट में देश को सबसे नीचे रखा गया है। हैरानी की बात है कि
इस इंडेक्स में भारत ने कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर बेहद कम स्कोर हासिल किया है।
वहीं दूसरी ओर डेनमार्क, यूनाइटेड किंगडम और फिनलैंड जैसे
देश हैं, जिन्होंने इस मामले में सबसे बेहतर प्रदर्शन किया है। इन देशों ने
पर्यावरण की सुरक्षा, जैव विविधता और आवास को संरक्षित करने के साथ प्राकृतिक संसाधनों
का संरक्षण करने वाली नीतियों में लंबे समय से निरंतर निवेश किया है।
बढ़ते प्रदूषण और जल संकट जैसी समस्याओं से जूझ
रहा है देश
भारत जो सबसे निचले पायदान पर है, वो वायु गुणवत्ता में आती गिरावट, तेजी से बढ़ता उत्सर्जन, भूजल में गिरावट, प्रदूषण और पानी की कमी से सूखती
नदियां और जल स्रोतों के साथ हर जगह लगते कचरे के पहाड़ जैसी पर्यावरण सम्बन्धी
अनगिनत चुनौतियों से जूझ रहा है। इतना ही नहीं ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन
के प्रभावों के प्रति सबसे संवेदनशील देशों में से भी भारत एक है।
इसमें कोई दोराय नहीं की आज हमारा देश भारी जल संकट का सामना कर
रहा है, हमारे 70 फीसदी भूजल स्त्रोत सूख चुके हैं। वहीं इनके पुनर्भरण की दर 10 फीसदी से भी कम रह गई है। चेन्नई, बेंगलुरु जैसे शहर पहले ही पानी की
कमी को लेकर सुर्खियों में हैं। वायु गुणवत्ता का आलम यह
यह कि स्विस वायु गुणवत्ता निगरानी संगठन आईक्यू एयर ने अपनी रिपोर्ट में भारत को 2023 का तीसरा सबसे प्रदूषित देश घोषित
किया है। बता दें कि इससे पहले 2022 में भारत इन देशों में आठवें स्थान
पर था। विडम्बना देखिए कि दुनिया के 50 सबसे प्रदूषित शहरों में से 42 भारत में हैं।
हैरानी की बात है कि पर्यावरण की गुणवत्ता में निरंतर आती गिरावट
के बावजूद देश में पर्यावरण और प्राकृतिक प्रणालियों की रक्षा के लिए बनाए कई
कानून पिछले कुछ वर्षों में बदलावों के चलते कमजोर हुए हैं। हालांकि इसको लेकर
व्यापक तौर पर जन विरोध भी हुए हैं।
उत्तर में हिमालय और अरावली में हमारे जल, जंगल, नदियां, पहाड़ और रेगिस्तान इंसानी
प्रभावों के चलते गिरावट का सामना कर रहे हैं। ऐसा ही कुछ भारत के मध्य और पूर्वी
क्षेत्रों में देखने को मिला है, इनमें हसदेव वन क्षेत्र शामिल हैं।
वहीं निकोबार द्वीप समूह और पश्चिमी घाट में पुरातन वर्षावनों का बड़े पैमाने पर
दोहन किया गया है।
इन क्षेत्रों में बांध परियोजनाओं के साथ-साथ बड़े स्तर की अन्य
संरचनाओं का निर्माण किया गया है। इसी तरह कोयला, पत्थर और रेत खनन ने इन क्षेत्रों
का बड़े पैमाने पर दोहन किया है। ऐसे में विषम परिस्थितियों में इन संगठनों ने एक
प्रेस विज्ञप्ति जारी कर देश के विभिन्न राजनीतिक दलों व नेताओं से पर्यावरण को
बचाने की मांग की है। उनकी मांग है कि हमारी प्राकृतिक और लोकतांत्रिक विरासत की
सुरक्षा के लिए नई प्रतिबद्धता और संवाद जरूरी है।
उन्होंने भारत में 'विकास' की परिभाषा में बदलावों की बात भी
करी है। उनका कहना है कि हमारे प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर विकास नहीं होना
चाहिए। इससे प्रदूषण को नियंत्रित करने वाले हमारे प्राकृतिक प्रणाली का विनाश हो
रहा है। वहीं पानी का गहराता संकट हमारे युवाओं और वन्यजीवों के भविष्य के लिए
खतरा बन रहा है, जिससे निपटना जरूरी है।
उनकी मांग है कि हिमालय, अरावली, पश्चिमी और पूर्वी घाटों, तटीय क्षेत्रों, आर्द्रभूमियों, नदी घाटियों, मध्य भारतीय और उत्तर-पूर्वी वन
क्षेत्रों में पारिस्थितिक तंत्र और सामुदायिक आजीविका की सुरक्षा सुनिश्चित करना
महत्वपूर्ण है। उन्होंने प्राकृतिक क्षेत्रों में कॉर्पोरेट शोषण पर रोक लगाने पर
जोर दिया है।
उन्होंने स्थानीय और राष्ट्रीय विकास से जुड़ी सभी निर्णय
प्रक्रियाओं में समुदाय और नागरिक समाज को मुख्य रूप में शामिल करने पर जोर दिया
है। उनका कहना है कि प्रकृति और उस पर निर्भर समुदाय के अधिकारों के साथ-साथ हमारी
भावी पीढ़ियों के अधिकारों को सभी विकास योजनाओं के मूल सिद्धांत के रूप में बनाए
रखा जाना चाहिए। उनके मुताबिक ग्राम सभा की सहमति के बिना वन व कृषि भूमि में कोई
बदलाव नहीं किया जाना चाहिए।
पर्यावरण एवं प्रकृति के संरक्षण के लिए इन संगठनों ने मांग की है
कि 2014 के बाद से पर्यावरण और वन अधिनियमों को कमजोर करने वाले सभी
प्रावधानों को बदला जाना चाहिए।
बंद होना चाहिए पर्यावरण को ताक पर रख होता विकास
वहीं पर्यावरण संरक्षण एवं जैव विविधता अधिनियम, वन अधिकार कानून, के साथ प्रकृति और मूल निवासियों
के अधिकारों को बनाए रखने वाले सभी कानूनों का पूर्ण और प्रभावी कार्यान्वयन
सुनिश्चित किया जाना चाहिए। उनकी यह भी मांग है कि सभी आर्द्रभूमियों को
आर्द्रभूमि (संरक्षण एवं प्रबंधन) नियम, 2010 के तहत अधिसूचित किया जाना चाहिए।
उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया है
कि भारत में सूख चुकी सभी नदियों, जोहड़ों, झीलों, तालाबों और अन्य जल निकायों को
पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। साथ ही हमारे देश की जल सुरक्षा सुनिश्चित करने के
लिए पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करके जल पुनर्भरण के लिए युद्ध स्तर पर काम किया जाना
चाहिए।
हिमालय, अरावली और पश्चिमी घाटों में नदियों को जोड़ने वाली परियोजनाओं, बांध निर्माण, सुरंग बनाने के लिए किए जाने वाले
विस्फोटों और हमारे पहाड़ों को काटने वाली सभी परियोजनाओं पर रोक लगाईं जानी चाहिए
और इन परियोजनाओं को शुरू करने से पहले उनके प्रभावों का मूल्याङ्कन करने और इनके
लिए आम लोगों की राय ली जानी चाहिए।
संपूर्ण भारत में शहरीकरण, बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं
और व्यवसायीकरण के लिए भूमि उपयोग में बदलाव से पहले क्षेत्रों को ध्यान में रखते
हुए विशिष्ट आपदा और क्लाइमेट रिस्क अध्ययन को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।
इसी तरह पहाड़ों पर होते खनन को रोकने के लिए निर्माण गतिविधियों
में सतत और वैकल्पिक निर्माण सामग्री के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए नीतियों का
तत्काल कार्यान्वयन होना चाहिए। इसी तरह जंगल और आवास क्षेत्रों के आसपास होने
वाली सभी खनन गतिविधियों को रोका जाना चाहिए। ताकि इसके लिए किए जाने वाले विस्फोट
और खनन गतिविधियों के चलते स्थानीय समुदायों और वन्यजीवों के स्वास्थ्य पर बुरा असर
न पड़े और वो सभी शांति से रह सके। इसी तरह प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को हमारी
भावी पीढ़ियों के लिए संजोया जा सके।
इन संगठनों ने ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियमों को नियमों को सख्ती से
लागू करने पर भी जोर दिया है। उनकी मांग है कि सभी शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में
सीवेज और अपशिष्ट जल के सुरक्षित उपचार, पुनर्चक्रण और निर्वहन के लिए
एसटीपी और ईटीपी स्थापित किए जाने चाहिए।
उनका कहना है कि हम भारतीयों को यह नहीं भूलना चाहिए कि वास्तव में
सुशासन, नीति निर्माण में जनता की भागीदारी को सुनिश्चित करता है। साथ ही
यह भ्रष्टाचार और नियमों की अनदेखी को कम करता है। यह एक तरफ जहां प्रेस की आजादी
में मददगार होता है साथ ही सार्वजनिक बहस का भी समर्थन करता है। यह पर्यावरण
संरक्षण सुनिश्चित करने के लिए जन प्रतिनिधियों के साथ-साथ नागरिकों को भी
प्रोत्साहित करता है। सबके साथ से ही देश एक बेहतर कल और सतत एवं न्यायसंगत विकास
की राह में आगे बढ़ सकता है।
मतदान सिर्फ राजनैतिक दलों और नेताओं का महज चयन ही नहीं यह
प्रकृति की सुरक्षा, बेहतर कल, सभी नागरिकों के संवैधानिक और लोकतांत्रिक अधिकारों की गारंटी और
भारत के युवाओं के लिए एक सुरक्षित भविष्य की कुंजी भी है।
( सन्दर्भ –डाउन टू अर्थ )
पानी से संबंधित सूचनाओ,समाचारों और सन्दर्भों का संकलन –पानी पत्रक
पानी पत्रक ( 150-19 अप्रैल 2024 ) जलधारा
अभियान,
221,पत्रकार कॉलोनी,जयपुर-राजस्थान,302020,संपर्क-उपेन्द्रशंकर-7597088300.मेल-jaldharaabhiyan.jaipur@gmail.com