छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा हसदेव अरण्य क्षेत्र में केंटे विस्तारित कोयला परियोजना को मंजूरी का कड़ा विरोध करते हुए इस पर तत्काल रोक की मांग करते हुए माकपा की पूर्व सांसद वृंदा करात ने केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री श्री भूपेंद्र यादव को निम्न पत्र लिखा-
" मैं _आपको छत्तीसगढ़ वन विभाग द्वारा केंटे एक्सटेंशन कोल परियोजना के संचालन को हरी झंडी देने के विनाशकारी निर्णय का कड़ा विरोध करने और उसे पलटने के लिए आपके हस्तक्षेप का अनुरोध करने के लिए लिख रही हूँ, जिसके लिए 1742 हेक्टेयर घने वन भूमि को नष्ट करना आवश्यक है। यह मंजूरी इस वर्ष जून में सरगुजा जिला वन अधिकारी द्वारा स्थल के तथाकथित निरीक्षण के बाद दी गई है।
जैसा कि आप निःसंदेह जानते हैं, यह परियोजना, जो हसदेव-अरण्य क्षेत्र की विशाल कोयला परियोजना का एक भाग है, राजस्थान सरकार के स्वामित्व वाली
एक बिजली कंपनी को दी गई थी। पूर्ववर्ती राजस्थान सरकार ने अडानी एंटरप्राइजेज के
साथ मिलकर पारसा केंटे कोलियरीज लिमिटेड नामक एक संयुक्त उद्यम स्थापित किया था, जिसमें अडानी की 74% हिस्सेदारी है। इस कंपनी को
हसदेव-परसा कोयला परियोजना का खनन विकासकर्ता एवं संचालक नियुक्त किया गया था।
अभिलेखों से पता चलता है कि इस परियोजना के अंतर्गत खनन किए गए कोयले की एक बड़ी
मात्रा को 'अस्वीकृत कोयले' के उपयोग के नाम पर निजी कंपनी की
बिजली परियोजनाओं में भेज दिया गया है। ये तथ्य प्रासंगिक हैं क्योंकि केंटे
एक्सटेंशन कोयला परियोजना को मंज़ूरी देने के पीछे दिया गया तर्क 'जनहित' का है। इसमें कोई जनहित नहीं है, केवल निजी लाभ के लिए खनिज संसाधनों
का दोहन शामिल है।
यदि यह परियोजना लागू हो जाती है, तो पहले से ही बुरी तरह प्रभावित उन क्षेत्रों में और भी ज़्यादा
तबाही मच जाएगी जहाँ खनन कार्य चल रहा है। आधिकारिक निरीक्षण रिपोर्ट के अनुसार, कम से कम 4.5 लाख पेड़ काटे जाएँगे। ये पेड़ घने
जंगल में हैं, जहाँ कार्बन अवशोषण के लिए
महत्वपूर्ण देशी पेड़ बहुतायत में हैं। इस क्षेत्र में खुले में खनन से पहले ही
हज़ारों पेड़ नष्ट हो चुके हैं, पानी और ज़मीन प्रदूषित हो चुकी है।
इसके अलावा, इन परियोजनाओं को संबंधित ग्राम
सभाओं की राय और संविधान व कानूनी ढाँचे के उन प्रावधानों की अनदेखी करके शुरू
किया जा रहा है जो ग्राम सभाओं की सहमति को अनिवार्य बनाते हैं। ओपन कास्ट माइनिंग
वास्तविक परियोजना से परे एक बहुत बड़े भौगोलिक क्षेत्र को प्रभावित करती है।
इसलिए, भले ही इस विशिष्ट क्षेत्र में मानव
बस्ती नगण्य हो, लेकिन क्षेत्र के बाहर के कई गाँव
इससे बुरी तरह प्रभावित होंगे। इससे पहले, स्थानीय समुदायों की ओर से सरकार को 1500 से ज़्यादा लिखित आपत्तियाँ दी गई
थीं। लेकिन इन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया गया।
मैं आपको कुछ महीने पहले दिए गए आपके बयान की याद दिलाना चाहूँगी, जब आपने भारतीय वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट
पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि "वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत दिए जा रहे अधिकारों के कारण
वन क्षेत्र नष्ट हो रहा है। कड़े संरक्षण उपायों की आवश्यकता है..."
(हिंदुस्तान टाइम्स, 5 जून)। हमने उस
बयान का विरोध किया था और बताया था कि तथाकथित विकास परियोजनाओं के कारण वन
क्षेत्र नष्ट हो रहा है। विकास के नाम पर निजी खनन परियोजनाओं द्वारा हमारे वनों
को नष्ट होने से बचाने के लिए कड़े संरक्षण उपायों की वास्तव में आवश्यकता है। इस
क्षेत्र के आदिवासियों ने एक बार फिर इस परियोजना का विरोध करके और पेड़ों तथा
प्रकृति के विनाश को बचाने के अपने प्रयासों से साबित कर दिया है कि भारत में वनों
के असली रक्षक वे ही हैं।
केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री के रूप में यह निश्चित रूप से आपकी
जिम्मेदारी है कि आप निजी कंपनी के हितों के लिए वनों, पेड़ों की अंधाधुंध कटाई तथा समृद्ध
जैव-विविधता वाले क्षेत्र के विनाश को रोकें।"
(सन्दर्भ /साभार –आलोक शुक्ला का फेस बुक पेज)
धरती पानी से संबंधित सूचनाओ,समाचारों और सन्दर्भों का
संकलन–पानी पत्रक
पानी
पत्रक-249 ( 27 अगस्त 2025) जलधारा अभियान,221,पत्रकारकॉलोनी,जयपुर-राजस्थान,302020,संपर्क-उपेन्द्र शंकर-7597088300.मेल-jaldharaabhiyan.jaipur@gmail.com
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