शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2025

नर्मदा बचाओ आंदोलन : बांध विरोध के चालीस साल

वैसे बड़े बांधों का विरोध उन्हें नए भारत के तीर्थके तमगे से नवाजे जाने के बरसों पहले शुरु हो गया था, लेकिन आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मापदंडों पर बाकायदा समीक्षा करके उनको खारिज करने का सिलसिला अस्सी के दशक में शुरु हुए नर्मदा बचाओ आंदोलनसे माना जाता है। क्या रहा इन चार दशकों का हासिल?

नर्मदा घाटी की तीन पीढ़ियों ने सामाजिक न्‍याय और पर्यावरण संरक्षण की एक लौ को बड़ी शिद्दत से जलाए रखा है। करीब 40 बरस में मशाल बन चुके ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ का सफर छोटा नहीं है। ‘सरदार सरोवर बाँध’ की मुखालिफत से शुरु हुई इस लड़ाई के पहले पर्यावरण शब्द नया थाहालांकि इसे लेकर ‘मूलशी बांध विरोध,’ ‘चिपको आंदोलन,’ ‘सेव सायलेंट वेली’ और ‘मिट्टी बचाओ अभियान’ जैसे आंदोलन अपनी छाप छोड़ चुके थे। ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ ने ‘सरदार सरोवर’ से प्रभावित होने वाले निमाड-मालवा के आदिवासी-किसानों के पुनर्वास और वित्तीय मामलों के साथ प्रभावितों की रोजी-रोटीउपजाऊ खेती और जंगलों के विनाश का मामला भी उठाया था। आंदोलन की सक्रियता के कारण विकास परियोजनाओं को पर्यावरणीय नजरिए से भी देखा-परखा जाने लगा।

आंदोलन के प्रभाव क्षेत्र में लोग अपने अधिकारों के प्रति सजग हुए और उन्‍होंने विस्‍थापन के अलावा अन्‍य मामलों को भी उठाया। यह सिलसिला अभी भी जारी है। ‘सरदार सरोवर’ के संघर्ष से प्रेरणा लेकर नर्मदा घाटी के ही ‘बरगी,’ ‘भीमगढ़,’ ‘इंदिरा सागर,’ ‘औंकारेश्‍वर,’ ‘महेश्‍वर,’ ‘अपर वेदा,’ ‘लोअर गोई,’ ‘मान,’ ‘जोबट’ आदि बाँधों के प्रभावित अपने अधिकारों के लिए खड़े होते गए और ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ का हिस्‍सा बने। ऐसे संघर्ष देश के अन्‍य हिस्‍सों में भी दिखाई दिए। यह एक आंदोलन के जनांदोलन बनने का उदाहरण है।

नर्मदा बचाओ आंदोलन’ का केन्‍द्र पश्चिमी मध्यप्रदेशउत्तरी महाराष्ट्र और पूर्वी गुजरात का पहाड़ी आदिवासी इलाका और मैदानी निमाड़ इलाके का ग्रामीण अंचल रहा है। इन इलाकों में आमतौर पर महिलाओं की भागीदारी कम दिखाई देती हैलेकिन आंदोलन ने वैचारिक और रणनैतिक वजहों से महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की। नतीजे में सार्वजनिक कार्यक्रमों में आधी से अधिक संख्‍या में महिलाएँ दिखाई देती रहीं। महिलाओं की यह भागीदारी केवल सार्वजनिक प्रदर्शनों तक सीमित नहीं थीबल्कि वे निर्णय प्रक्रिया में भी हिस्सा लेती थीं। आंदोलन के माध्‍यम से हुआ महिला सशक्तिकरण घरेलू मामलों से लेकर गाँव-समाज में भी दिखाई दिया।

प्रभावितों की लड़ाई केवल नागरिकों के हकों की उपेक्षा करने वाली सरकारों के विरोध तक सीमित नहीं थी। ‘सरदार सरोवर परियोजना’ के लिए 45 करोड़ डॉलर का कर्ज देने पर विश्‍वबैंक को भी नर्मदा घाटी में विनाश का जिम्‍मेदार ठहराया गया और अंतत: उसे पीछे हटना पड़ा। पर्यावरण और पुनर्वास संबंधी चिंताओं के कारण विश्‍वबैंक द्वारा ‘सरदार सरोवर परियोजना’ की आर्थिक मदद रोकना एक बड़ी अंतर्राष्‍ट्रीय घटना और आंदोलन की जीत थी। तब तक कोई ऐसा उदाहरण देखने को नहीं मिला था जिसमें विश्‍वबैंक ने कभी किसी परियोजना से अपना हाथ खींचा हो।

जो चिंताएँ भारत की बाँध परियोजना में देखी गईंवे ही दुनिया की अन्‍य बाँध परियोजनाओं में भी थीं। इसलिए आंदोलन ने सम-विचारी समूहों के साथ मिलकर विश्‍वबैंक को बाध्‍य किया कि वह अपनी मौजूदा कर्ज नीति में बदलाव करेताकि दुनिया में कहीं भी सामाजिकआर्थिक और पर्यावरणीय विनाश को रोका जा सके। विश्‍वबैंक को इसके लिए राजी होना पड़ा और ‘इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़रवेशन ऑफ नेचर’ (आईयूसीएन) के साथ मिलकर बड़े बांधों के सामाजिकपर्यावरणीय और आर्थिक प्रभावों की समीक्षा हेतु ‘विश्‍व बाँध आयोग’ का गठन करना पड़ा। इसमें आंदोलन की ओर से मेधा पाटकर को आयुक्‍त के रुप में शामिल किया गया। दक्षिण अफ्रीका के जल-संसाधन मंत्री कादर अस्‍माल की अध्‍यक्षता वाले ‘विश्‍व बाँध आयोग’ की रिपोर्ट के बाद विश्‍वबैंक को अपनी कर्ज नीति में बदलाव करना पड़ा और उसने कई सालों तक बाँध परियोजनाओं को कर्ज देना बंद रखा।

आंदोलन ने ऐसी सरकारें देखी हैं जिन्‍होंने प्रभावितों के जीवनरोजी-रोटी और अधिकारों की लड़ाई को खारिज किया था। कुछ सरकारों ने आंदोलनकारियों के खिलाफ दमनचक्र भी चलायालेकिन जिन सरकारों ने उपेक्षा नहीं कीवे भी प्रभावितों को उनके अधिकार देने में अनिच्‍छुक ही रहीं। प्रभावित किसानों को अपने ही राज्‍य में ‘जमीन के बदले जमीन’ देने की बंधनकारी नीति के बावजूद मध्‍यप्रदेश की सरकारों ने जमीन देना कभी स्‍वीकार नहीं किया। मध्‍यप्रदेश में उद्योगपतियों को आसानी से जमीनपानी और बिजली उपलब्‍ध करवाने वाली सरकार सुप्रीम कोर्ट में शपथ-पत्र देती थी कि विस्‍थापितों के लिए जमीन उपलब्‍ध नहीं है। इसके बावजूद आंदोलन करीब 20 हजार परिवारों को जमीन दिलवाने में सफल रहा। इनमें बड़ी संख्‍या भूमिहीन परिवारों की है। यह छोटी उपलब्धि नहीं है।

कुछ हजार परिवारों को और भी जमीन मिल सकती थी यदि आंदोलन की एक रणनीतिक चूक न होती। सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने अक्‍टूबर 2001 के अपने आदेश में पुनर्वास नीति को बरकरार रखा था। इस कारण मध्‍यप्रदेश सरकार के लिए भी खेती की जमीन देकर पुनर्वास करने की बाध्‍यता थी। सरकार तो किसी भी कीमत पर प्रभावितों को जमीन देने के पक्ष में नहीं थी इसलिए जमीन के बदले 5 लाख 58 हजार रुपए अनुदान का विकल्‍प दिया। अनुदान राशि एकमुश्‍त न देकर 2 किश्‍तों में भुगतान की गई और अनुदान की पहली किश्‍त यानी आधी अनुदान राशि से पूरी 5 एकड़ जमीन खरीदकर रजिस्‍ट्री करवाने की शर्त रखी गई। अनुदान भुगतान का यह तरीका व्‍यवहारिक नहीं था। संपत्ति की रजिस्‍ट्री उधारी में नहीं होती।

इस अतार्किक शर्त का फायदा शातिर अधिकारियों और दलालों के गठजोड़ ने उठाया। गठजोड़ ने करीब 3 हजार से अधिक आदिवासियों और किसानों की फर्जी रजिस्‍ट्री करवाते हुए खूब चाँदी काटी और प्रभावितों को जमीन से वंचित कर दिया। कुछ सालों तक चले इस फर्जीवाड़े में आंदोलन की भूमिका पूर्ववत् नगद अनुदान के विरोध की रही। आंदोलन की इस भूमिका ने फर्जीवाड़ा आसान कर दियाक्‍योंकि तब फर्जीवाड़े में शामिल गिरोह को आंदोलन की निगरानी का डर भी नहीं बचा था। 5 लाख 58 हजार रुपए की अनुदान राशि से तब 5 एकड़ जमीन मिलना संभव था। उस समय आंदोलन यदि अनुदान राशि से जमीन खरीदने में प्रभावितों की मदद करता तो फर्जीवाड़े पर भी लगाम लगती और कुछ अधिक प्रभावितों को जमीन मिल पाती। हालांकि आंदोलन के प्रयासों से फर्जीवाड़े की जाँच के लिए उच्‍च न्‍यायालय के सेवानिवृत्त न्‍यायाधीश श्रवणशंकर झा की अध्‍यक्षता में एक आयोग गठित किया गया थालेकिन फर्जीवाड़े में शामिल किसी अधिकारी-कर्मचारी के खिलाफ सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की।

मध्‍यप्रदेश और महाराष्‍ट्र के आदिवासी इलाके में एक तो स्‍कूल ही नहीं थे और जो थे वे भी कागजों पर चलते थे। इन स्‍कूलों को शुरु करवाने के लिए आंदोलन ने काफी प्रयास किएलेकिन सफलता नहीं मिली। अंत में आंदोलन ने निर्णय लिया कि उसे ही संघर्ष के साथ शिक्षा का मोर्चा भी खोलना पड़ेगा। इस प्रकार “पढ़ाई-लड़ाईसाथ-साथ” के उद्देश्‍य को लेकर ‘जीवन-शालाओं’ की शुरुआत हुई। इन ‘जीवन-शालाओं’ ने न सिर्फ उस इलाके की पहली पीढ़ी को शिक्षित कियाबल्कि उनसे निकले कई छात्र-छात्राएं आज शिक्षकडॉक्‍टरइंजीनियर और राज्‍य स्‍तर के खिलाड़ी हैं।

नर्मदा बचाओ आंदोलन’ अपने चार दशकों के सफर में सामाजिक न्यायपर्यावरण संरक्षणसही जल-प्रबंधनआदिवासी-किसानों-महिलाओं के सशक्तिकरण और मानवाधिकारों की लड़ाई का एक जीवंत प्रतीक बना है। दुनिया में कम लोग हैं जो सरकारी दमनचक्र और उपेक्षा के बावजूद टूटे नहीं और संघर्ष की जलती मशाल अपनी अगली पीढियों को सौंपते रहे। नर्मदा घाटी के साधारण से ग्रामीण किसान-आदिवासीमछुआरोंखेतीहर मजदूरों आदि ने इस आंदोलन को एक बाँध से कहीं आगे ले जाकर विशाल परियोजनाओं के प्रभावों और उनकी समीक्षा तक पहुंचा दिया। इन साधारण लोगों का असाधारणअदम्‍य साहस और उनके द्वारा जलाई मशाल आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहे

( सन्दर्भ /साभार –सर्वोदय प्रेस सर्विस-रेहमत मंसूरी  )

धरती पानी  से संबंधित सूचनाओ,समाचारों और सन्दर्भों का संकलनपानी पत्रक  पानी पत्रक-252 ( 4 अक्टूबर  2025) जलधारा अभियान,221,पत्रकारकॉलोनी,जयपुर-राजस्थान,302020,संपर्क-उपेन्द्र शंकर-7597088300.मेल-jaldharaabhiyan.jaipur@gmail.com



 

 

 

मंगलवार, 30 सितंबर 2025

कुलसी नदी की ,उकियाम, जलविद्युत परियोजना का असम-मेघालय के आदिवासी समूहों ने फिर विरोध किया

 

असम-मेघालय सीमा पर, गुवाहाटी से लगभग 80 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में, प्रस्तावित 55 मेगावाट की उकियाम जलविद्युत परियोजना ने एक बार फिर कड़ा विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया है।

 यह परियोजना असम और मेघालय सरकारों द्वारा संयुक्त रूप से कुलसी नदी पर बनाई जा रही है। कुलसी नदी लुप्तप्राय गंगा नदी डॉल्फ़िन का एक प्रमुख आवास भी है।

जलविद्युत और सिंचाई परियोजना की योजना की घोषणा सबसे पहले 2 जून 2025 को असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा और मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड के संगमा के बीच एक बैठक के बाद की गई थी .घोषणा के बाद जून में ही स्थानीय लोगों के अनेक विरोध प्रदर्शन हुए |

 गारो राष्ट्रीय परिषद (जीएनसी), राभा राष्ट्रीय परिषद (आरएनसी) और कई अन्य संगठनों ने किसी भी परिस्थिति में इस परियोजना को स्वीकार न करने की कसम खाई है।

उकियाम के पिकनिक स्थल पर, 25 सितम्बर 2025, गुरुवार को जीएनसी द्वारा आयोजित विरोध सभा में असम-मेघालय संयुक्त संरक्षण समिति सहित कई समूहों ने भाग लिया। मेघालय के उकियाम और आसपास के इलाकों के निवासी पर्यावरणीय और सामाजिक चिंताओं का हवाला देते हुए वर्षों से इस योजना का विरोध कर रहे हैं।

सभा शुरू होने से पहले, गारो समुदाय के सदस्यों ने दिवंगत गायक जुबीन गर्ग के लिए प्रार्थना की, कार्यक्रम की औपचारिक शुरुआत में उनके चित्र के समक्ष पुष्पांजलि अर्पित की और मोमबत्तियाँ जलाईं।

जीएनसी अध्यक्ष एनिंद्रा मारक ने सरकार के इस दावे को खारिज कर दिया कि केवल 10-15 गाँव ही प्रभावित होंगे। उन्होंने चेतावनी दी, "इसका असर कुछ गाँवों तक ही सीमित नहीं रहेगा। यह बाँध मेघालय से लेकर असम के ब्रह्मपुत्र बेसिन तक विनाश का कारण बनेगा।" मारक ने यह भी आरोप लगाया कि विरोध से बचने के लिए निर्माण कार्य 2026 के विधानसभा चुनावों तक टाला जा सकता है, लेकिन बाद में इसे आगे बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने उकियाम के लोगों से बातचीत करने या इस मामले पर कोई आश्वासन देने में विफल रहने के लिए मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा की भी आलोचना की। उस समय, श्री सरमा ने कहा था कि दोनों सरकारें स्थानीय समुदायों के साथ परामर्श के बाद ही कुलसी परियोजना पर आगे बढ़ेंगी।

आरएनसी के मुख्य संयोजक गोबिंद राभा ने राज्य सरकार पर तीखा हमला करते हुए दावा किया कि अगर बाँध बना तो लगभग 1.9 लाख बीघा ज़मीन बर्बाद हो जाएगी। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि आदिवासी इलाकों और ब्लॉक क्षेत्रों में परियोजनाओं के लिए स्थानीय निवासियों की सहमति ज़रूरी है। एक विवादास्पद टिप्पणी में, राभा ने कहा, "मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा हमारा दर्द नहीं समझते क्योंकि वे मूलतः हमारे संघर्षों से एक बाहरी व्यक्ति हैं।" उन्होंने सरकार पर स्थानीय समुदायों की दुर्दशा की अनदेखी करने का आरोप लगाया।

राभा ने कामरूप ज़िले के लोगों से उन "जनविरोधी परियोजनाओं" के ख़िलाफ़ एकजुट होने का आह्वान किया, जिन्हें उन्होंने "जनविरोधी" बताया। उन्होंने न केवल उकियाम बाँध का, बल्कि कुकुरमारा-पलाशबाड़ी में प्रस्तावित दोराबील लॉजिस्टिक्स पार्क और रानी के पास बोरदुआर में प्रस्तावित सैटेलाइट टाउनशिप का भी ज़िक्र किया और चेतावनी दी कि ये परियोजनाएँ पारिस्थितिक संतुलन को बिगाड़ेंगी और स्थानीय समुदायों पर प्रतिकूल प्रभाव डालेंगी।

इससे पहले, स्थानीय संगठनों ने असम और मेघालय, दोनों सरकारों को अनेक  ज्ञापन सौंपकर इस परियोजना को रद्द करने की माँग की थी, लेकिन कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली।  समिति के नेताओं ने इस बात पर निराशा व्यक्त की कि दोनों राज्य सरकारों ने परियोजना के विरुद्ध प्रस्तुत कई ज्ञापनों को नज़रअंदाज़ कर दिया है।

19 सितंबर 2025 को, असम-मेघालय संयुक्त संरक्षण समिति ने शिलांग में खासी हिल्स स्वायत्त ज़िला परिषद (केएचएडीसी) को एक ज्ञापन सौंपा। हालाँकि, केएचएडीसी अधिकारियों ने कहा कि इस मामले पर नोंग्मिनसॉ, नोंग्खलाव और रामबराई क्षेत्रों के पारंपरिक प्रमुखों के साथ चर्चा की जानी चाहिए।

जीएनसी के महासचिव चेंगजान संगमा ने जनता को सूचित किया कि जब तक स्थानीय प्रमुख अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी नहीं करते, उकियाम में कोई बाँध नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि, मेघालय में, भूमि स्वामित्व कानून केवल पारंपरिक मुखियाओं को ही अनापत्ति प्रमाण पत्र देने का अधिकार देता है .

( सन्दर्भ /साभार – Northeast Now ,Hub news)

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नर्मदा बचाओ आंदोलन : बांध विरोध के चालीस साल

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