सोमवार, 25 सितंबर 2023

प्राकर्तिक संपदा पर कब्जे के लिये,दक्षिणी चीन सागर में तनातनी

 25 अगस्त 2023 को, ऑस्ट्रेलिया और फिलिपिन्स के 1750 नोसैनिको के साथ अमेरिका के 120 नोसेनिको ने दक्षिणी चीन सागर किनारे के फिलिपिन्स राज्य पलावन के शहर रिजाल में कतिथ तौर पर  दुश्मन ताकतों दुआरा कब्ज़ा किये द्वीप को दुबारा हासिल करने का नकली अभ्यास किया . इससे पहले 5 अगस्त 2023  को इसी सागर में. एक चीनी तट रक्षक जहाज ने फिलीपीनी जहाज पर पानी की बोछारें फेंकी. यह दक्ष्णि चीन सागर के दो प्रितिदुंदी देशो के बीच चल रहे तनाव को दर्शाने वाली घटनाओं में से कुछ  हैं .

2016 में संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के तहत हेग में एक मध्यस्थता न्यायाधिकरण द्वारा दिये फैसले में, लगभग पूरे दक्षिण चीन सागर पर चीन के दावे को काफी हद तक अमान्य कर दिया, और 200 समुद्री मील (लगभग 370 किमी के बराबर)  तक  संसाधनों पर फिलीपींस के नियंत्रण को बरकरार रखा. चीन ने मध्यस्थता में भाग लेने से इनकार कर दिया और समुद्र के अधिकांश हिस्से पर अपना दावा बरकरार रखते हुए फैसले की अवहेलना जारी रखी है

इन दोनों के अलावा भी, इस समुद्र की सीमा से लगे अन्य देश, ताइवान ,मलेशिया और वियतनाम ,ब्रुनाई , इन  द्वीपों, उनके  आसपास के  समुद्र पर स्वामित्व का दावा करते रहे  हैं क्योंकि  इस  समुद्र में  अथाह संसाधन दवे हैं , जो कि आधुनिक विकास का आधार माने जाते हैं , और सबकी नीयत उन संसाधनों पर कब्जा ज़माने की है . साथ ही उत्तर पूर्व में, दक्षिण चीन सागर दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण व्यापार मार्गों में से एक है। इसलिये भी यह छेत्र  महत्वपूर्ण रणनीतिक और राजनीतिक महत्व रखता है।

  दक्षिण चीन सागर  हाइड्रोकार्बन, विशेष रूप से प्राकृतिक गैस का बड़ा  एक संभावित स्रोत है जो कि  दक्षिण -पश्चिम में सिंगापुर और मलक्का जलडमरूमध्य से लेकर ताइवान जलडमरूमध्य तक फैला हुआ है. इस क्षेत्र में कई सौ छोटे द्वीप, और चट्टानें शामिल हैं, इनमें से कई द्वीप आंशिक रूप से जलमग्न हैं’, और कई इतने छोटे हैं कि उन पर बसाहट मुमकिन नहीं है .

.दक्षिण चीन सागर में तेल और गैस के भंडार प्रचुर मात्रा में मिले  हैं। अमेरिकी सरकार का अनुमान है कि इसके तल से 11 अरब बैरल तेल और 190 ट्रिलियन क्यूबिक फीट प्राकृतिक गैस निकालने के लिए तैयार है।

वाशिंगटन स्थित एशिया मैरीटाइम ट्रांसपेरेंसी इनिशिएटिव ने बताया कि कई देश इन  विवादित जल क्षेत्रों में नई तेल और गैस विकास परियोजनाओं को आगे बढ़ा रहे हैं, संगठन का कहना है, कि इन परियोजनाओं के कारण यह छेत्र  "विवादों का फ्लैशप्वाइंट" बन सकता है। 2018 और 2021 के बीच, चीन, वियतनाम और अन्य दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के बीच वहां ड्रिलिंग कार्यों को लेकर कई गतिरोध हुए, और आशंकाएं बन रही हैं कि आगे और भी गंभीर टकराव हो सकते हैं

 छेत्र में चीन और अमेरिका दुआरा समर्तिथ कई देशों के बीच विनाशकारी सेन्य संघर्ष का खतरा भी मंडरा रहा है , दक्षिण चीन सागर मे  उसके संसाधनों की  पहले ही अपूर्णीय  हानि हो चुकी है . उदाहरण के लिए, दशकों की अत्यधिक दोहन  का उस समुद्र में कभी फलने-फूलने वाली मछलियों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा है। ट्यूना, मैकेरल और शार्क की आबादी 1960 के दशक के स्तर से 50% तक गिर गई है। समुद्र के बढ़ते तापमान से बचने के लिए संघर्ष कर रहे जैविक रूप से महत्वपूर्ण मूंगा चट्टानें  भी रेत और गाद के नीचे दबे जा रहे हैं क्योंकि चीनी सेना विवादित स्प्रैटली द्वीप समूह पर दावा करती रही है  और उस पर निर्माण कार्य  कर रही है,

अपने विशाल आकार -13 लाख वर्ग मील -के बावजूद, दक्षिण चीन सागर  चीन और अमेरिका दुआरा समर्थन प्राप्त देशों  बीच राजनीतिक तनाव का  जल छेत्र बन गया है. जहां प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे के लिये हो रहा  संघर्ष एक दिन समुद्रीय पर्यावरणीय पतन का कारण बन सकता है।

(स्रोत्र –डिप्लोमेट,अल ज़ज़ीरा, कॉमन ड्रीम्स , इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फॉर लॉ एंड सी स्टडीज )

पानी से संबंधित सूचनाओ,समाचारों और सन्दर्भों का संकलनपानी पत्रक 

पानी पत्रक  (123-26 सितम्बर 2023 ) जलधारा अभियान, 221,पत्रकार कॉलोनी,जयपुर-राजस्थान,302020, संपर्क-उपेन्द्र शंकर-7597088300.मेल-jaldharaabhiyan.jaipur@gmail.com

मंगलवार, 12 सितंबर 2023

क्या हिमालयवासियों के लिए हिमालय नहीं है

 

जोशीमठ से उठे प्रश्न

जोशीमठ में भूधंसाव की खबर ने सबका ध्यान खींचा। इससे उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों के अलावा, दूसरे हिमालयी राज्यों में भी भय और चिंता पैदा हो गई कि कहीं उनका भी ऐसा ही हश्र न हो जाए। अधिकांश हिमालयी इलाके भी जोशीमठ क्षेत्र की तरह एक ऐसे ‘विकास’ के शिकार हैं, जिसने पहाड़ को खुर्द बुर्द-खोखला और तबाह कर रखा है। यही वजह है की इन इलाकों में आपदाओं की आशंका हमेशा बनी रहती है।

जोशीमठ का धंसना अभी रुका नहीं है. घरों और खेतों में नई दरारें आ रही हैं और पुरानी दरारें चौड़ी होती जा रही हैं। यहाँ के लोगों को डर है कि भारी बारिश में ज़मीन के बड़े-बड़े हिस्से नीचे खिसक सकते है। पुनर्वास की मांग को लेकर उनका धरना जनवरी से अप्रैल की शुरुआत तक जारी रहा। तब उन्हें त्वरित कार्रवाई का आश्वासन देते हुए धरना बंद करने के लिए कहा गया। इसकी एक बड़ी वजह सरकार की तरफ से बद्रीनाथ यात्रा को बिना किसी झंझट के शुरू करना था। स्थानीय लोग विरोध प्रदर्शन फिर से शुरू करने की तैयारी में हैं क्योंकि उचित पुनर्वास योजना के अभाव में उनके पास अपने क्षतिग्रस्त घरों में रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।


यह स्थिति ऐसे प्रश्न उठाती है जो अधिकांश हिमालयी क्षेत्रों के लिए प्रासंगिक हैं।

 पहला सवाल ये है कि ऐसी आपदाओं के लिए कोई जवाबदेही तय क्यूँ नहीं होती? हिमालयी क्षेत्र के पारिस्थितिक और भूवैज्ञानिक रूप से संवेदनशील और भूकंप की दृष्टि से अत्यधिक सक्रिय होने के बावजूद हिमालयी राज्यों में जलविद्युत परियोजनाओं को बड़ी संख्या में बनाया जा रहा है। अध्ययनों से पता चला है कि इन परियोजनाओं के हरित ऊर्जा के दावे सही नहीं हैं। ये "जोखिम भरे ढांचे" हैं जो सामाजिक और पारिस्थितिक रूप से अन्यायपूर्ण साबित हुए हैं।

विभिन्न शोध यह भी बताते हैं कि उत्तराखंड में 2013 और 2021 की बाढ़ जैसी आपदाओं को पैदा करने और बढ़ाने में इन परियोजनाओं की भूमिका है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित रवि चोपड़ा विशेषज्ञ समिति ने भी ये पाया था। समिति ने तर्क दिया था कि ग्लेशियरों के घटने से बनी जोशीमठ जैसी जहां भी कच्ची जमीन हैं वहाँ ऐसी परियोजनाओं का निर्माण आपदा को निमंत्रण देने जैसा है।

जोशीमठ में तपोवन विष्णुगाड परियोजना 2005 में अपने शुरू होने के बाद से ही पूरे क्षेत्र में सामाजिक-पारिस्थितिक समस्याओं का कारण बनी है। 2021 की बाढ़ में सैकड़ों श्रमिक इसकी टनल में जिंदा दफन हो गए। यहाँ आपदा से आगाह करने के लिए कोई अलार्म सिस्टम तक नहीं लगाया गया था। स्थानीय लोगों का कहना है कि यह परियोजना जोशीमठ शहर के साथ-साथ आसपास के कई गांवों में भी नुकसान के लिए जिम्मेदार है। वे करीब दो दशकों से इसका विरोध कर रहे हैं।

यह बात कि जोशीमठ पुरानी भूस्खलन के मलबे पर बना है। 1976 की एम सी मिश्रा समिति की रिपोर्ट ने यह सिफ़ारिश की थी कि यहाँ भारी मशीनरी का प्रयोग, ब्लास्टिंग, ड्रिलिंग और पेड़ों की कटाई नहीं होनी चाहिए। फिर भी इस परियोजना ने यहाँ सुरंगों का एक जाल बनाया, बोरिंग मशीन और विस्फोटकों का उपयोग करके इस नाजुक भूगोल और इलाके की स्थिरता पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। यह परियोजना भूवैज्ञानिक रूप से सही नहीं है। बार बार आने वाली आपदाओं के कारण इस परियोजना का काम भी खटाई में पड़ता रहा है। यही वजह है कि इसके कार्यान्वयन में एक दशक से भी ज्यादा की देरी हो चुकी है। ऐसी परियोजना से होने वाले विनाश का बोझ स्थानीय लोग क्यों और कब तक झेलते रहेंगे?

दूसरा सवाल, स्थानीय लोगों को इलाके की सुरक्षा के बारे में अंधेरे में क्यों रखा जा रहा है, जबकि वे अपने क्षतिग्रस्त घरों में जाग कर रातें काटने को मजबूर हैं? सात महीने के बाद भी जोशीमठ में भूमि धंसाव के कारणों, प्रभावों और भविष्य के खतरों के बारे में कोई व्यापक रिपोर्ट सामने नहीं आई है। सरकार ने जनवरी में सभी विशेषज्ञ संस्थाओं को भूस्खलन के बारे में कुछ भी जानकारी देने पर रोक लगा दी थी। और अब तक आपदा का अध्ययन करने के लिए अपने द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट साझा नहीं की है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में आपदा की स्थिति से निपटने का यह तरीका कभी नहीं होता है।

तीसरा सवाल, यदि सरकार सभी जोखिमों के बावजूद ऐसी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने पर आमादा है तो उसे प्रभावित लोगों का पुनर्वास सुनिश्चित क्यों नहीं करना चाहिए? हिमालयी राज्यों में ऐसी परियोजनाओं को चलाते बरसों हो गए हैं। लेकिन सरकार ने इनके प्रभावों और प्रभावितों के पुनर्वास के प्रति जिम्मेदारियों को परिभाषित करने के लिए कोई स्पष्ट दिशानिर्देश जारी नहीं किए हैं। पर्वतीय जगहों पर ऐसी परियोजनाओं का प्रभाव तुरंत नहीं दिखता, बल्कि उनके प्रभाव दीर्घकालिक और व्यापक होते है। वे कुछ समय अंतराल के बाद भी प्रकट होते हैं और उन क्षेत्रों को भी प्रभावित करते हैं जो परियोजना से एकदम सटे हुए नहीं होते। इसलिए ऐसी परियोजनाओं के ‘प्रभावितों’ की पहचान और पुनर्वास के प्रति परियोजना की जिम्मेदारियों को सही से परिभाषित करना जरूरी है।

विकास परियोजनाओं द्वारा अनैच्छिक विस्थापन की स्थिति में एक उचित पुनर्वास नीति बनाने का उत्तराखंड सरकार द्वारा कोई प्रयास नहीं किया गया है। पुनर्वास पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, सरकार के प्रयास ‘एकमुश्त निपटान’ तक ही सीमित हैं। जोशीमठ में तो मुआवजे का भुगतान केवल घरों के लिए ही किया जा रहा है। यह राशि अपर्याप्त है और अधिकांश अभी भी इसका इंतजार कर रहे हैं। चूंकि लोग कहीं और जाकर बस पाने की स्थिति में नहीं हैं इसलिए अधिकांश लोग असुरक्षित घरों में रहने के लिए वापस आ गए हैं।

सरकार का ज़ोर आपदा के बाद भी यात्रा पर्यटन को सुचारू रूप से चलाने पर ही रहा, इसलिए आपदा को कम करके भी दिखाया जाता रहा। आपदा के बावजूद पर्यटकों की संख्या पर कोई सीमा नहीं रखी गई. इससे बड़ा सवाल उठता है: इस तरह अगर पहाड़ रहने के लिए अनुपयुक्त स्थानों में तब्दील कर दिये जाएंगे तो पहाड़ के निवासी आखिर कहाँ जाएंगे? ऐसे ‘विकास’ की उत्तराखंड के लोगों के लिए क्या प्रासंगिकता रह जाती हैं जिसने उनके घरों को रहने लायक नहीं छोड़ा है

                                  (साभार -श्रुति जैन, इंडियन एक्सप्रेस, 3 अगस्त 2023)

 (श्रुति जैन ने 3 अगस्त को इंडियन एक्सप्रेस में छपे अपने इस लेख का स्वयं अनुवाद कर, जोशीमठ के अतुल सती जी को भेजा, उनसे हमें प्राप्त हुआ ,जिससे यह अधिक से अधिक लोगों तक पहुँच सके )

 शुक्रिया श्रुति जी, शुक्रिया अतुल जी  

                         पानी से संबंधित सूचनाओ,समाचारों और सन्दर्भों का संकलनपानी पत्रक

                पानी पत्रक ( 122-12 सितम्बर 2023) जलधारा अभियान, 221,पत्रकार कॉलोनी,जयपुर-               राजस्थान,302020,संपर्क-उपेन्द्र शंकर-7597088300.मेल-jaldharaabhiyan.jaipur@gmail.com


 

 

रविवार, 3 सितंबर 2023

पश्चिमी राजस्‍थान में सोलर पॉवर प्‍लांट के प्रभाव

           पश्चिमी राजस्‍थान में सोलर पॉवर प्‍लांट के प्रभाव पर 26 अगस्‍त 2023 को

आयोजित ऑनलाईन वार्ता का संक्षिप्‍त कार्यवृत्त

ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत्रों के रूप में इन दिनों सोलर प्लांट और एयर टर्बाइन के प्लांट चलन में हैं। राजस्थान सरकार ने भी इसी उद्देश्‍य से प्रदेश के उत्तर-पश्चिमी भाग में हज़ारों हेक्टर जमीन निजी कंपनियों को आवंटित की है जिससे न सिर्फ व्‍यक्तिगत विस्‍थापन बल्कि पूरे समूदाय की आजीविका और भोजन आत्‍मनिर्भरता प्रभावित हो रही है; पलायन भी  हो रहा है।

इन योजनाओं से प्रभावित ग्रामीण समुदाय अपने-अपने स्‍तर पर आवाज उठा भी रहे हैं। लेकिन, उनके इस महत्‍वपूर्ण संघर्ष की खबरें सुर्खिया नहीं बन पा रही है। मीडिया में इन योजनाओं के संबंध में सिर्फ प्रायोजित खबरें और विज्ञापन ही दिखाई देते हैं। कभी कभार कोई यदि खबर देखने को मिल भी जाए तो उसे तोड़-मरोड़ कर कानून-व्‍यवस्‍था का मामला बना कर प्रस्‍तुत किया जाता है।

देश के अन्‍य हिस्‍सों में बसने वाले नागरिक भी पश्चिमी राजस्‍थान की साझा समस्‍या से रुबरु हो सके, इसी उद्देश्‍य से इस वार्ता का आयोजन किया गया था जिसमें राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, आसाम, छत्तीसगढ़ और दिल्ली के 21 प्रतिभागियों ने हिस्‍सा लिया और जैसलमेर के तीन साथियों – सर्व श्री पार्थ जगानी, सुमेरसिंह सांवता और चतरसिंह जाम ने अपनी बातें रखीं. तो जानते हैं उनकी रखीं बातों को .

श्री पार्थ जगानी (जैसलमेर)

आम तौर पर राजस्‍थान और खासतौर से पश्चिमी राजस्‍थान को रेतीली बंजर भूमि माना जाता है। जबकि यहाँ की अपनी पास्थितिकी है जहाँ विविधतापूर्ण घास के मैदान है, छोटी झाड़ियाँ और बड़े पेड़ हैं, चिंकारा-लोमड़ी है, ग्रेट इंडियन बस्‍टर्ड है। यहाँ प्रवासी पक्षियों के झुण्‍ड आते हैं औं इस पारिस्थितिक तंत्र में जीने के पर्याप्‍त संसाधन मौजूद है तभी तो लोग सदियों से यहाँ रहते हैं। 

सोलर पार्क और विंड मिल की स्‍थापना के लिए इस पारिस्थितिक तंत्र को बर्बाद कर दिया गया है। असंख्‍य पेड़ काट दिए गए हैं। आज भी पेड़ों की अंधाधुंध कटाई जारी है। कहीं कहीं तो 10-15 किमी तक लगातार पेड़ काट दिए गए हैं। इस कारण हमें कैर, खेजड़ी और पीलू के फल नहीं मिल पा रहे और हमारे भोजन की विविधता घटती जा रही है। यहाँ 4 रंगों में कैर मिलते हैं जो खाए जाते हैं। लेकिन सोलर पार्क के कारण बड़े पैमाने पर इन पेड़ों की कटाई के कारण अब यह फूल बहुत कम मिल रहे हैं। 

लाला और कराड़ा गाँवों के बीच सोलर पार्क बना दिया गया है। चारागाह खत्‍म होने से पशुपालन मुश्किल हो गया है और उन ग्रामीणों की आजीविका संकट में आ गई है। उनके घर और जमीनें सोलर पार्क से घिर गए हैं। सोलर पार्क की बाऊँड्री वाल के कारण एक गाँव से दूसरे गाँव जाने के लिए  कई कई किमी का चक्‍कर लगाना पड़ता है। पशुओं के लिए घास चारा लाने के लिए भी इसी तरह लंबा रास्‍ता तय करना पड़ता है। 

सोलर पैनल फि‍क्‍स करने के लिए जमीन में 5-5 फूट की दूरी पर सीमेंट-कांक्रीट के पिलर बना दिए गए हैं जिससे जैविक मोटा अनाज पैदा करने वाले ये खेत खराब हो चुके हैं। एग्रीमेंट अवधि खत्‍म होने के बाद जब कंपनी जमीन खाली करेगी तब भी उनमें खेती करना मुश्किल होगा। सोलर पॉवर प्‍लांट के लिए किसानों की जमीनें 25 सालों के लिए लीज पर ली गई है। एग्रीमेंट अंग्रेजी या क्लिष्‍ठ हिंदी में लिखे हैं जो स्‍थानीय समुदाय के लिए समझना कठिन है।

वर्ष 2000 में जैसलमेर में पवन चक्‍की लगाते समय बहुत बड़े दावे किए गए थे जो गलत साबित हुए। छोटे ठेकेदारों को प्‍लांट लीज पर देते समय उत्‍पादित बिजली का दाम 8-8.50 रुपए/यूनिट बताया गया था लेकिन अभी वास्‍तव में 2 रुपए/यूनिट ही मिल पा रहे हैं। 

सोलर पॉवर प्‍लांट तथा पवन चक्‍की परियोजनाओं के विस्‍तार के बाद कई लोगों ने अपनी संपत्तियाँ बेचकर गाड़ियाँ खरीद ली थी जो माँग कम होने के कारण अब ठीक से चल नहीं रही है। कुछ किसानों ने सोलर पार्क में गार्ड की नौकरी कर ली थी जिनमें से अब ज्‍यादातर की छँटनी कर दी गई है। इसके विपरीत पशुधन आधारित व्‍यवस्‍था में पूरा परिवार अलग-अलग जिम्‍मेदारियों के साथ काम में लगा रहता है। वहाँ एक झटके में बेरोजगारी का खतरा नहीं है। 

निडान गाँव में कुछ पशुपालक परिवार 1947 से बसाए गए हैं। इन्‍हें आश्‍वासन दिया गया था कि उन्‍हें उस जमीन का मालिकाना हक दे दिया जाएगा जहाँ वे बसाए गए हैं। लेकिन, ज्‍यादातर लोगों को अभी तक यह हक नहीं मिला है और अब इन परिवारों के कब्‍जे वाली जमीन पर भी कम्पनी का सोलर पार्क बन गया है। इनका बुरा हाल है। जमीन भी हाथ से निकल गई और पशुपालन भी मुश्किल हो गया है। इनके पास पशुओं के लिए पानी तक की व्‍यवस्‍था नहीं बची है। पास के गाँव जाने के लिए इन्‍हें 35 किमी का चक्‍कर लगाना पड़ रहा है। 

बड़े-बडे सोलर पार्क से राजस्‍थान के राज्‍य पशु ब्‍लेक बक और अन्‍य जंगली जानवरों का जीवन कठिन हो गया है। अपना भोजन खोजते हुए वे रास्‍ता भटक जाते हैं। सोलर पार्क की तार वाली बाउँड्री में उलझ कर मर भी जाते हैं। 

बड़े पैमाने पर लगाए गए सोलर पैनल से बारिश पर प्रभाव के बारे में कोई अध्‍ययन नहीं हुआ है लेकिन स्‍थानीय निवासी इसे महसूस कर रहे हैं। सोलर पैनल के रिफलेक्‍शन से पैदा हुई गर्मी से हवा में खालीपन बढ़ा है जिससे हवाओं की गति बढ़ी है। इस समय बारिश के दिनों में भी आंधियाँ चल रही है। बादल नहीं बन रहे हैं। इसका असर बरसात के पैटर्न पर भी दिखाई दे रहा है। इस बार दोनों सावन सूखे निकल गए। जुलाई-अगस्‍त के बजाय, मई जून में बारिश हुई है जिससे फसलें प्रभावित हो रही हैं।

पेड़-पौधों से मिले कैर और सांगरी जैसे फलों का इस्‍तेमाल भोजन के लिए होता है। पहले लाला कराड़ा जैसे गाँवों की महिलाएँ गाँव के आसपास के पेड़ों से यह आसानी जुटा लेती थी। अब या तो ये पेड़ काट दिए गए हैं या बीच में सोलर पार्क आ जाने के कारण इन पेड़ों की दूरी इतनी बढ़ गई है कि महिलाओं का वहाँ पहुँचना मुश्किल हो गया है। इन दिनों सांगरी के फल बाजार में 1200 रुपए किलो बिक रहे हैं जो हमारे लिए खरीद पाना असंभव है।

जगानी जी ने अपनी बात को और पुख्ता बनाने के लिए पी पी टी का इस्तेमाल किया .  

श्री सुमेरसिंह सांवता

मरुस्‍थल के संवेदनशील पर्यावास को बचाना बहुत जरुरी है। लेकिन सरकार का ध्‍यान इस ओर नहीं है। जिन कंपनियों को सोलर पार्क के लिए जमीनें दी है वे कंपनियाँ पेड़ों की बेतहाशा कटाई कर रही है लेकिन उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है। नदी नालों का रास्‍ता रोकने पर सजा का प्रावधान है लेकिन विकास के नाम पर हमारे नदी, तालाब और उनके आगोर नष्‍ट कर दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट की रोक के बावजूद राजस्‍थान के राज्‍य वृक्ष खेजड़ी समेत अन्‍य वृक्षों की भी अंधाधुंध कटाई जारी है। पेड़ काटने में मात्र कुछ मिनिट लगते हैं जबकि उसे बड़ा करने में सालों की मेहनत लगती हैं। 

इस इलाके का इकोसिस्‍टम तेजी से असं‍तुलित होता जा रहा है। खेती खत्‍म की जा रही है। ये गतिविधियाँ हमारे अस्तित्‍व को संकट में डाल रही है। इन मामलों पर आवाज उठाई जानी चाहिए लेकिन इस अपरिवर्तनीय नुकसान के खिलाफ आवाज उठाने वालों को प्रताड़ित किया जाता है। हाई टेंशन लाईन का विरोध करने पर मेरे खेत में 5 टॉवर खड़े कर दिए गए हैं। 

पशुधन इस इलाके की अर्थव्‍यवस्‍था का महत्‍वपूर्ण घटक है। लेकिन, सोलर पार्क के कारण चारागाह सिकुड़ते जा रहे हैं। पशुधन के नुकसान से स्‍थानीय समुदाय की आर्थिक स्थिति खराब होती जा रही है। खेती की जमीन और वन्‍य जीव भी खत्‍म होते जा रहे हैं। मेरे देखते हुए एक के बाद एक कई तालाब खत्‍म हो गए। प्रवासी पक्षियों का पर्यावास लगातार सिमटता जा रहा है। 

हमारे लिए यह बहुत दुखद स्थिति है। हमारा भविष्‍य अंधकारमय नज़र आ रहा है। इस स्थिति से हमारे गाँवों को बचाया जाना चाहिए। विकास का यह तरीका पूरे देश के लिए नुकसानदायक साबित होगा। 

अतीत में देखा गया है कि अकाल का प्रभाव पश्चिमी राजस्‍थान में नहीं होता था। यहाँ 46 प्रकार की घास उपलब्‍ध है। अकाल के दिनों में कुछ घासों के बीज हमारी जान बचाते थे। इन बीजों को अनाज के साथ पीस कर खाने में उपयोग किया जाता था। पहले इंदिरा गाँधी नहर ने हमारी घासों की विविधता को कम किया। इस बार सोलर पॉवर से यही हमला हो रहा है। 

 इसी समय श्री पार्थ जगानी ने जोड़ा कि 1899 में जैसलमेर में अकाल (इसका असर देश के कई हिस्‍सों में पड़ा था) पड़ा था तब घास-चारे का गंभीर संकट था। पशुपालकों को अपने पशुओं के साथ पलायन करना पड़ा था। उस समय तत्‍कालीन रियासत द्वारा रिजर्व फारेस्‍ट में चराई को मंजूरी दी गई थी।

श्री चतरसिंह जाम ने जोड़ा कि सोलर पार्क वाली कंपनियाँ बड़े लोगों की है। एक अडाणी की और दूसरी रिन्‍यू पॉवर यशवंत सिंहा के लड़के की है। ये हमारे जलस्रोतों को खत्‍म कर रहे हैं।

एक सवाल के जवाब में यह तथ्‍य सामने आया कि सोलर प्‍लेट को धोने के लिए बार-बार पानी की जरुरत होती है। एक अनुमान में मुताबिक 10 मेगावाट क्षमता के सोलर पॉवर प्‍लांट की प्‍लेटों को एक बार धोने के लिए करीब 1 लाख 65 हजार लीटर पानी की जरुरत होती है। यह पानी बोरवेल के माध्‍यम से जमीन से निकाला जाता जिससे वहाँ के भू-जल स्‍तर पर प्रभाव पड़ रहा है। 

वार्ता का संचालन रहमत भाई ने और आयोजन -मंथन अध्‍ययन केन्‍द्र (बड़वानी), 

जलधारा अभियान (जयपुर), सेंटर फॉर फायनेंशियल एकाउंटिबिलिटी (नई दिल्‍ली) और भारत ज्ञान विज्ञान समिति (जयपुर) ने किया 
                   पानी से संबंधित सूचनाओ,समाचारों और सन्दर्भों का संकलनपानी पत्रक
पानी पत्रक (121- सितम्बर 2023) जलधारा अभियान, 221,पत्रकार कॉलोनी,जयपुर-राजस्थान,302020,संपर्क-उपेन्द्र शंकर -7597088300.मेल-jaldharaabhiyan.jaipur@gmail.com

पाकिस्तान की कृषि बर्बाद हो रही है: आर्थिक सर्वेक्षण ने सरकारी नीतियों की विफलता को उजागर किया

पाकिस्तान का कृषि क्षेत्र ढह रहा है - और इसका दोष पूरी तरह से शहबाज शरीफ सरकार की विनाशकारी नवउदारवादी नीतियों पर है। संघीय बजट से पहले 9 ज...