घोषणा पत्र, फरवरी 2024
२. अंग्रेजों के शासनकाल से हिमालय पर या तो 'सैरगाहों' या फिर 'रणनीतिक' सीमावर्ती क्षेत्र
की नज़र से शासकों द्वारा कब्ज़ा किया गया। यहाँ के जल, जंगल और ज़मीन की लूट
औपनिवेशिक युग के बाद भी आज़ाद भारत में जारी रही और पिछले कुछ दशकों में विकास के
नाम पर पूंजीवादी लालच ने इस लूट को और गति दी है - बड़े बांध और फोरलेन राजमार्ग, रेलवे जैसी अंधाधुंध
निर्माण परियोजनाओं, अनियंत्रित शहरीकरण और वाणिज्यिक पर्यटन के कारण भूमि-उपयोग में
अभूतपूर्व परिवर्तन से हिमालय की नदियों, जंगलों, घास के मैदानों और
भूगर्भीय स्थिति बर्बाद हुयी है जिसने आपदाओं को आमंत्रित किया।
३. हम मानते हैं कि सामाज में ऐतिहासिक रूप से शोषित समुदाय – सीमान्त किसान, भूमिहीन, दलित-आदिवासी, वन निवासी, महिलायें, प्रवासी मज़दूर, घुमंतू पशुपालक, अल्पसंख्यक, दिव्यांग व्यक्ति और
विवादित क्षेत्रों (conflict
zones) में बसे लोग जो
संसाधनों से वंचित हैं, जो इन आपदाओं के लिए जिम्मेदार भी नहीं, आज इन आपदाओं से
सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। ऐतिहासिक भेदभाव और अन्याय के शिकार अब ये आपदाओं के
चलते और सत्ताहीन- संसाधन विहीन होते जा रहे हैं। वहीँ दूसरी तरफ हम मानते हैं कि
सत्ताधारी समाज और नीतिनिर्धारक – जिन्होंने पहाड़ के प्राकृतिक संसाधनों को अपनी मल्कियत मान कर
खरीद फरोक्त का सामान बना दिया है - चाहे वो विश्व, देश और राज्य चलाने
वाली सरकारें हो या वर्ल्ड बैंक जैसी वैश्विक संस्थाएं हों, या फिर कोर्पोरेट हो
या खुद हमारे अपने स्थानीय नेता और ठेकेदार हों – यह पूरी व्यवस्था इन
आपदाओं के लिए ज़िम्मेदार हैं।
४. संवैधानिक स्वायत्ता और समानता के मूल्यों पर आधारित
नीति-कानूनों को दरकिनार कर एक तरफ बाज़ारीकरण और दूसरी तरफ राजनैतिक केन्द्रीयकरण
ने हिमालयी क्षेत्रों की राजनैतिक व्यवस्था को कमज़ोर किया है। ऊपर से थोपी गयी
आर्थिक सुधार की नीतियों ने पहाड़ में रहने वाले समुदायों के पारंपरिक आजीविकाएं, जीवन शैली, पारंपरिक ज्ञान और
जोखिम से बचने और इनसे उभरने की क्षमता और मजबूती को भी खत्म किया है। साथ ही
पर्वतीय राज्यों की वित्तीय ताकत को अन्तराष्ट्रीय ऋण आधारित परियोजनाओं ने और भी
कमज़ोर किया है। धार्मिक बहुसंख्यवाद और सांप्रदायिक विचारधारा को बढ़ावा देती
राजनीति ने पहाड़ी क्षेत्रों की मानसिकता में तेज़ी से घेर लिया है और पर्यावरणीय
संकट में यह ध्रुवीकरण और जटिल मुद्दों के रूप में सामने आ रहे हैं।
५. पिछले डेढ़ दशकों में विकास और राष्ट्र सुरक्षा के नाम पर
जनता और प्रकृति की रक्षा करने वाले प्रगतिशील कानूनों को पूरी तरह खत्म कर दिया
गया है। भूमि सुधार और आवंटन, आवास नियमितीकरण, वन अधिकार कानून, आपदा और परियोजना
प्रभावितों के पुनर्वास तथा श्रमिकों के अधिकार के नीति-कानून को दरकिनार कर सरकार
कभी ‘वन संरक्षण’ के नाम पर तो कभी
कार्बन सोखने के लिए हरित राज्य बनाने के नाम पर लोगों की ज़मीन से ‘बेदखली’ की प्रक्रिया चला
देती है। जो अन्याय के विरोध पर आवाज़ उठाते हैं – उन को राष्ट्र
विरोधी तो कभी विकास विरोधी बता कर प्रताड़ित किया जाता है – हम इसका खंडन करते
हैं।
हम ‘पीपल फॉर हिमालय’ अभियान के माध्यम से
अपने साझा प्राकृतिक विरासत - हिमनद, नदियों, जंगलों, जैवविविधता, चरागाहों, ज़मीनों और इन पर
आश्रित विभिन्न समाजों के अस्तित्व के संघर्ष के लिए खड़े हैं। हम उन सभी संस्थाओं
और व्यक्तियों को सहभागी बना के चलेंगे जो हिमालय में लोकतांत्रिक और विकेन्द्रित
शासन के पक्ष में हैं; जो दोनों विज्ञान और पारंपरिक ज्ञान आधारित सतत संसाधन उपयोग और
रख रखाव; समानता-आधारित और
शोषण मुक्त समाज तथा पर्यावरणीय न्याय के सिद्धान्तों में विश्वास रखते हैं।
(पीपुल फॉर हिमालया अभियान -तीस्ता के प्रभावित नागरिक)
(सन्दर्भ -ट्रांसबाउंड्री तीस्ता व्हाट्सअप्प ग्रुप )
पानी से संबंधित सूचनाओ,समाचारों और सन्दर्भों का
संकलन –पानी पत्रक
पानी पत्रक ( 142-5 मार्च 2024 ) जलधारा अभियान, 221,पत्रकार कॉलोनी,जयपुर-राजस्थान,302020,संपर्क-उपेन्द्रशंकर-7597088300.मेल-jaldharaabhiyan.jaipur@gmail.com
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