एक सबक़ भी और सवाल भी
( नदियों एवं पानी
को लेकर पिछले 40 साल से अधिक समय से काम करने वाले बिहार के सामाजिक (निर्दलीय ) कार्यकर्ता रणजीव नहीं रहे,
जून 2024 में कभी, बंद कमरे में उनका निधन हो गया.
.रणजीव 1974 के जे पी आन्दोलन के
सेनानी थे .कोसी मुक्ति और गंगा मुक्ति आंदोलन में भी वे सक्रिय रहे. नदी और तटबंध
की समस्या को लेकर इन्होंने कई किलोमीटर
की पदयात्रा भी की थी. उनकी पुस्तक (पत्रकार मित्र हेमंत के साथ ) ‘जब नदी बंधी’ बिहार में कोसी की स्थिति समझने के लिए पहली सबसे प्रामाणिक किताब है रणजीव नदियों को जीते थे. फक्कड़ की
तरह जीवन बिताने वाले रणजीव का मन कोसी में रमा रहता था. अविवाहित रहे
रणजीव के लिए कोसी ही उनकी संगनी थी .
मधुपुर झारखण्ड से प्रकाशित “ पर्यावरण संवाद “ का जुलाई
का पूरा अंक रणजीव के प्रीति समर्पित है . उसी से योगेन्द्र जी का लेख यंहा दिया
जा रहा है ताकि रणजीव के व्यक्तिव्व के
कुछ और पहलुयों को भी जाना समझा जा सके )
रणजीव के फ़ेसबुक
वॉल पर जाइए तो उनकी प्रोफ़ाइल पर जो पहली पंक्ति लिखी मिलेगी, वह है - ‘प्रवाह ही जीवन है । ‘ यह सच है , जीवन तो प्रवाह में ही है, लेकिन अंतिम समय में रणजीव के जीवन
में प्रवाह नहीं था। जो व्यक्ति विभिन्न आंदोलनों में सक्रिय रहा।’ जब नदी बंधी ‘
जैसी पुस्तक का संयुक्त संपादक/ लेखक
रहा, वह बुरी तरह से ठहर गया। क्षत- विक्षत
हुई लाश को देखना क्या कम पीड़ा दाई था? वे कब मरे, कैसे मरे, कुछ भी कहना मुश्किल । कई दिनों के
बाद उनके कमरे के दरवाज़े तोड़कर उनकी लाश निकाली गयी । मेरी उनसे कई बार मुलाक़ात
हुई । हर बार मुस्कुराते ही मिले। चेहरा पर कोई तनाव नहीं, न किसी तरह के अहं भाव। मैंने कभी यह भी नहीं देखा कि किसी सभा
सोसायटी में माइक पर जाकर बोलने की कोई ख्वाहिश हो। लटके - झटके तो उनके जीवन को
छू तक नहीं गया था।
संयुक्त रूप से
संपादित पुस्तक ‘ जब नदी बंधी ‘ नदियों को बांधने के खिलाफ ही रची गई । प्रवाह ही जीवन है, मनुष्य के लिए भी,
नदी के लिए भी और जीव जंतुओं के लिए
भी। प्रवाह का रूकना जीवन की समाप्ति की ओर ही संकेत है । रणजीव बँधे नहीं, रिश्तों में। परिवार में थे, लेकिन उन्होंने शादी नहीं की। पहली
जनवरी 1955 को जन्मे रणजीव में बौद्धिक ताक़त तो
थी ही, संघर्ष करने की भी ताक़त थी। बोधगया
भूमि मुक्ति आंदोलन में थे और गंगा मुक्ति आंदोलन में भी। 1974 के छात्र आंदोलन में तो थे ही। 1974 के छात्र आंदोलन से
निकले थे , आज के ज़्यादातर नेता। अभी कोई
मुख्यमंत्री हैं, कोई मंत्री हैं । लेकिन छात्र आंदोलन
जिन कारक तत्वों के आधार पर हुआ था, वे आज भी क़ायम हैं, बल्कि उससे भी भद्दी स्थिति में है । भ्रष्टाचार का मामला हो या
शिक्षा का ।लोकतंत्र के सिकुड़ने का मामला हो या उपभोक्तावाद का। नागरिक के सर पर
चढ़ कर बोल रहा है। छात्र आंदोलन से दो धाराएँ निकलीं- एक संसदीय राजनीति में
विलीन हो गयी और दूसरी निर्दलीय होकर विभिन्न आंदोलनों में लगीं । इसी से एक क्षीण
धारा एनजीओ की ओर मुड़ी । रणजीव निर्दलीय रहे और विभिन्न आंदोलनों में अपनी भागीदारी
निभाते रहे।
देश या समाज कई
स्थल पर चूक जाता है और अपनी प्रतिभा का बेहतर इस्तेमाल नहीं कर पाता। रणजीव
प्रतिभाशाली थे और मुझे लगता है कि वे अगर लेखन में लगे रहते तो अपने साथ समुचित
न्याय करते। उनके फ़ेसबुक वॉल पर जाइए तो उन्होंने यदा कदा ही अपनी बात लिखी है ।
ज़्यादातर वे साथियों की टिप्पणी/ लेख को शेयर करते थे। यों शेयर करने में भी उनकी
वैचारिक प्रतिबद्धता दिखती ही है,
लेकिन उनके अंदर के आलोड़न को पूरी
तरह व्यक्त नहीं करते। फ़ेसबुक वॉल पर जब भी उन्होंने टिप्पणी की तो बहुत
संक्षिप्त । उनकी कुछ पंक्तियाँ देखिए-
5 नवम्बर 2017- पीत पत्रकारिता/ भगवा पत्रकारिता के अगुआ रहे जागरण का संपूर्ण
बहिष्कार करें।
19 अप्रैल 2018-अनौपचारिक वार्ताओं का क्या है रहस्य? क्या इससे राष्ट्रभक्ति संदिग्ध नहीं होती।
29 अप्रैल 2018- जनता के पैसे का दुरुपयोग कर विज्ञापनों पर टिकी है भाजपा सरकार-
संदर्भ नई दुनिया 26 अप्रैल जो कुल 24 पृष्ठ में छपा और
23 पृष्ठ में विज्ञापन था।
29 अप्रैल 2018- राष्ट्र के कामकाज में शामिल होना ही असली राष्ट्रप्रेम है।
11 मई 2018 - लालू जी को
अन्यायपूर्ण प्रतिबंधों के साथ तीन दिनों का पैरोल देना भाजपा की गंदी राजनीति है।
13 मई 2018- देश का हर आदमी
अपनी दैनिक गतिविधियों में हर पल कार्बन फुटप्रिंट कम करने का ज़रूरी पहल नहीं
करेगा तो वह खुद जलेगा और दूसरों को भी जलायेगा ।
17 मई 2018- कांग्रेसियों कोर्ट
छोड़ सड़क पर उतरो , जनता का साथ लो । लोकतंत्र सड़क पर मिलेगा
।
18 मई 2018- आनेवाले दिनों में
इस क़ानून के मद्देनज़र आपकी व्यक्तिगत निजता गिरवी हो जायेगी ।
संदर्भ- डीएनए
प्रोफ़ाइल बिल
22 मई 2018 को रणजीव ने कई
पोस्ट लिखे- छोटे - छोटे।
पहला - आदरणीय
मुख्यमंत्री जी, इतिहास संजोने से वर्तमान समृद्ध नहीं
होता। बिहार को वर्तमान की समृद्धि चाहिए ।
दूसरा- यह सभ्यता- द्वार नहीं ,
जनता के पैसे की फ़िज़ूलख़र्ची असभ्यता - द्वार है। यह सत्ता का अहंकार भी है।
तीसरा - आज बुजुर्ग
दिवस है पर फ़ेसबुक पर उनके लिए लोगों का पोस्ट नदारद है । यह प्रमाण है कि आज के
समाज के लिए बुजुर्ग अर्थहीन हो गये हैं ।
चौथा- आज जैव विविधता दिवस भी है पर दुनिया की एक जैसी विकास की भेड़ चाल हर
रोज़ पृथ्वी की विविधता समाप्त करती जा रही है ।
14 जून 2018- कश्मीर में पत्रकार
शुजात बुख़ारी की हत्या कश्मीर में अमन के प्रयासों की हत्या है । केंद्र व राज्य
सरकारें इस निर्मम हत्या की ज़िम्मेवार है।
19 जून 2018 - कश्मीर में अपनी
मनमानी चलाने और 2019 के आम चुनाव में तीव्र ध्रुवीकरण के
लाभ की पूर्व तैयारी हेतु बीजेपी ने कश्मीर सरकार को गिराया है।
ऐसे पोस्ट रणजीव के
नज़रिए को स्पष्ट करते हैं । वे पार्टी ओरियेंटेड पत्रकारिता के आलोचक थे , जो झूठी खबरों केमाध्यम से कलही राजनीति स्थापित करती है। वे
पर्यावरण को लेकर चिंतित हैं । वे कोशी क्षेत्र से आते थे , जहॉं कोशी का तांडव हर वर्ष होता है । इसलिए उनके जीवन के केंद्र
में पर्यावरण रहा है । जैव विविधता को लेकर भी वे चिंतित होते हैं और नदियों पर
आसन्न ख़तरे को लेकर भी। आज निजता का कोई अर्थ नहीं रह गया है । हर व्यक्ति की
निजता ख़तरे में है। रणजीव निजता के पक्षधर रहे। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार छात्र
आंदोलन से ही निकले हैं । उनसे समृद्ध बिहार के निर्माण की उम्मीद थी। जब यह
उम्मीद टूटने लगी तो रणजीव ने टिप्पणी की -इतिहास संजोने से वर्तमान समृद्ध नहीं
होता। वर्तमान को समृद्ध बनाने के लिए वर्तमान की समस्याओं से जूझना होगा। सत्ता
में जो पहुँचता है, वह जनता के पैसे को पानी की तरह बहाता
है। रणजीव को यह सब एक असभ्य तरीक़ा लगता था। उनकी चिंता के केंद्र में अगर बिहार
था तो वे कभी देश और विश्व को नहीं भूले। उनके द्वारा शेयर किए गए सैकड़ों पोस्ट
इस बात की गवाही देते हैं ।
रणजीव से मैं मिलता
रहा हूँ । फ़ोन पर भी बातचीत होती रही है । जब भी मिलें तो मुस्कुराते हुए मिले-
दुबली पतली देह, पकी दाढ़ी और हँसता हुआ मुखमंडल। जब
मैं बिहार विधान परिषद का चुनाव लड़ रहा था तो उसका फ़ोन आया। वे जानते थे कि मैं
वेतन और पीएफ के पैसे से लड़ रहा हूँ। सामने जो उम्मीदवार है, वह अकूत धन और मज़बूत सामाजिक परंपरा वाला है। उससे मैं कैसे पार
पाऊँगा? पार पाना संभव नहीं था, लेकिन मैं अपनी ज़िद पर अड़ा था। उन्होंने मुझे कभी निराश नहीं
किया, लेकिन हक़ीक़त बताते रहे। अब वे हैं
नहीं। उन्होंने अपना अंतिम समय उपेक्षित होकर बिताया। समाज भी आज निःस्वार्थ सेवक
को समुचित सम्मान नहीं देता। उसे तो लकदक करता हुआ शख़्स चाहिए, जो उसे ठग भी ले,
तो कोई बात नहीं। रणजीव का जीवन
सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए एक सबक़ भी है। इस सबक़ के पाठ को पढ़ कर सामाजिक
कार्यकर्ता को अपने जीवन की व्याख्या करनी चाहिए ।
निर्दलीय होकर समाज
में काम करना जोखिम उठाना है ही ,लेकिन जोखिम उठाने का माद्दा भी इंसान के पास ही
है . रणजीव में यह माद्दा था और उन्हें इस बात के लिए याद किया जाता रहेगा .
(पर्यावरण संवाद से साभार )
पानी से संबंधित सूचनाओ,समाचारों और सन्दर्भों का संकलन –पानी पत्रक (167-25 अगस्त 2024)जलधारा अभियान, 221,पत्रकारकॉलोनी,जयपुर-राजस्थान,302020,संपर्क-उपेन्द्रशंकर-7597088300.मेल-jaldharaabhiyan.jaipur@gmail.com