सितमबर के अंतिम सप्ताह में बिहार की अधिकांश नदियां उफान पर थी। गंगा में पहले ही बाढ़ आई हुई थी जिसकी वजह से पटना में मरीन ड्राइव के पास कई राहत शिविर चल रहे थे। इस संदर्भ में गंगा में बाढ़ और गाद जमा होने के कारक के रूप में फरक्का बैराज पर फिर से बहस शुरू हुई। लेकिन इससे पहले कि गंगा का जलस्तर कम होता, अचानक 27 सितमबर की दोपहर को नेपाल के जलसंसाधन विशेषज्ञ अजया दीक्षित ने व्यक्तिगत बातचीत में इशारा किया कि नेपाल के ऊपरी इलाकों में लगातार भारी बारिश हो रही है और संभव है कि कल (शनिवार, 29 सितंबर) को निचले इलाकों में बाढ़ की स्थिति बने। कुछ ही घंटों में गुपचुप खबर आने लगी कि हो सकता है शनिवार को कोशी नदी में अप्रत्याशित जलराशि का बहाव हो। ये सुनकर कि ये राशि 7 लाख क्यूसेक्स हो सकती है, लोगों के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। सब लोग अपने स्तर से इस खबर की पुष्टि करने में जुट गए। लगभग 8 बजे रात में सरकारी सूत्रों से पुष्टि होने लगी कि खबर सच है। कुछ ही घंटों में जिला कलेक्टर और राज्य स्तरीय पदाधिकारियों की आपात बैठक की सूचना मिली। आदेश आ गए, छुट्टियाँ रद्ध हो गई। पूरा प्रशासन रेड अलर्ट पर था। आशंका के अनुसार रात से पानी बढ़ने लगा। 2 दिन के भीतर गंडक, कोशी, बागमती सब में बाढ़ की स्थिति थी। चारों तरफ से लोगों की चीख-पुकार के विडिओ सोशल मीडिया पर तैरने लगे। हर जगह से एक ही बात आ रही थी – हमारे पास बाहर निकालने का कोई इंतजाम नहीं है, हमलोग डूब रहे हैं। अगले दिन बिहार की अलग-अलग नदियों पर बने तटबंध 7 जगह से टूट चुके थे।
आदतन, राजनेता और पदाधिकारी ये राग अलापने लगे – ये प्राकृतिक आपदा है। इतनी बारिश के लिए कोई तैयार नहीं था। ये सरकार का परंपरागत रवैया है जिसके माध्यम से ये अपने विकास के मोडेल से उपजी आपदाओं को प्रकृति पर मढ़ने की कोशिश करते हैं। यहाँ दो विशेषज्ञों के माध्यम से अपनी बात कहना चाहूँगा। पहला, बिहार के जलसंसाधन विशेषज्ञ दिनेश मिश्र ने ई.पी.डब्ल्यू में अपने आलेख का शीर्षक दिया था – “द इनेविटेवल हेज हैप्पेंड”। ये रोचक है कि उन्होंने कुसहा त्रासदी को “इनेविटेवल” कहा। यानि ये कोई औचक घटना नहीं है, ये नियति थी। नियति भाग्यवाद के अर्थ में नहीं बल्कि इस अर्थ में कि जिस तरह से उत्तर बिहार के नदियों के बाढ़ प्रबंधन की नीतियाँ बनाई गई, आज की स्थिति उसका पटाक्षेप है। जो हुआ वही हो सकता था या होना था। आजादी के पहले से चले आ रहे बहसों में भी अलग-अलग समय पर अनेक विशेषज्ञों ने पठा-पठाकर कहा था कि उत्तर बिहार के नदियां हिमालय से गाद लाती हैं और रास्ता बदलती है, इसलिए उन्हे तटबंधों से बांधना विनाशकारी सिद्ध होगा।
दूसरा, नेपाल के जलसंसाधन विशेषज्ञ अजया दीक्षित ने ई.पी.डब्ल्यू में अपने
आलेख में कहा है कि तटबंध “फाल्स सेन्स ऑफ सिक्युरिटी” पैदा करते हैं। उनका तर्क भी ऊपर दिए
गए तर्क से निकलता है। गाद लाने वाली नदियां रास्ता बदलने के लिए जानी जाती हैं।
तटबंधों के बन जाने से वो अपना गाद एक बड़े भूभाग पर नहीं फैला पाती जिससे
धीरे-धीरे नदी का पेट भरने लगता है। इससे नदी की जलपरिवहन क्षमता घटने लगती है।
इससे तटबंदों पर दबाव बढ़ता है और उनके टूटने की संभावना बढ़ती है। इसलिए “कन्ट्रीसाइड”
के लोग सिर्फ एक मिथ्याचेतन में जीते
हैं कि वो बाढ़ से सुरक्षित हो चुके हैं जबकि सच्चाई ये है कि बाढ़ की तलवार उनके
गर्दन पर हमेशा लटकी रहती है। दरभंगा जिले के जमालपुर प्रखण्ड में अंततः कोशी का
पश्चिमी बांध टूट गया। इससे बड़े आश्चर्य की बात ये है कि नदी बांध को तोड़े बगैर
बांध के ऊपर से बह रही थी। इससे ये एकदम साफ हो गया कि नदी के पेट में इतना गाद भर
चुका है कि नदी अब पानी बहा सकने में सक्षम नहीं है। जब तक कोशी का डिस्चार्ज 6 लाख क्यूसेक से अधिक से घटकर 2 लाख क्यूसेक्स के नीचे नहीं आ गया, तटबंध के बाहर मधेपुरा जिले में लोगों की सांस अटकी हुई थी। उनके
आगे 2008 की कुसहा त्रासदी की तस्वीरें आ रही
थी।
(यह तस्वीर दिखाती है कि 2008 में, कैसे कोशी नदी ने अपनी एक परित्यक्त पैलियोचैनल को अपनाया। इससे कोसी तटबंध के पूर्वी
हिस्से में कथित रूप से बाढ़ से सुरक्षित क्षेत्रों में भारी तबाही हुई।)
दुर्भाग्य ये है कि न तो हमने 2008 में कुछ सीखा और इस साल भी राजनेताओं के आ रहे बयान से यही लगता है कि इस बार भी सीखने का मौका हम चूक जाएंगे। इस बात को पुष्ट करने के लिए हमें बिहार में तीन महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों के शीर्ष नेताओं के बयान को देखना चाहिए। बीजेपी के सम्राट चौधरी दिल्ली में केन्द्रीय मंत्री से मिलकर कोशी में नया बैराज बनवाने की मांग कर रहे हैं। आरजेडी के जगदानंद सिंह कह रहे हैं कि नेपाल में हाई डैम बनने पर ही उत्तर बिहार को बाढ़ से स्थायी मुक्ति मिल सकती है। पूर्व जलसंसाधन मंत्री और जेडीयू के नेता संजय झा ने पत्रकारों से बात करते हुए कहा कि 2024 की बाढ़ एक प्राकृतिक आपदा है। इतनी भारी बारिश जलवायु परिवर्तन का संकेत देती है इसलिए वो भी प्राकृतिक कारक है। दियारा में बसे लोग गलत जगह पर रहते हैं इसलिए दोष उनका है। स्थायी समाधान हाई डैम है।
सभी राजनीतिक दलों
की बाढ़, नदी और डैम के बारे में एक राय खौफनाक
है। ऐसे में कोई बेहतर दिनों की रोशनी नजर नहीं आती। कम से कम वर्तमान दलीय
राजनीति में तो बाढ़ की समस्या के जनपक्षी और पर्यावरण-संगत समाधान का सूत्र नहीं
मिलता। उधर अलग ताल ठोक रहे प्रशांत किशोर भी प्रकृति के प्रति नव उदारवादी
दृष्टिकोण के पैरोकार लगते हैं। अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि उत्तर
बिहार की नदियां तो “संसाधन” हैं जिसका “उपयोग” पिछली सरकारों ने नहीं किया। हम आएंगे
तो उनपर रिवर फ्रन्ट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट बनेंगे जिससे अर्थव्यवस्था मजबूत होगी।
इस संदर्भ में इस
बात पर बहस होनी चाहिए कि वर्तमान राजनीतिक ढांचे में एक सुसंगत विकास की अवधारणा
कैसी विकसित की जाए।
(राहुल यादुका, शोधार्थी, अंबेडकर यूनिवर्सिटी दिल्ली- rahulyaduka353@gmail.com
)
(समकालीन जनमत से साभार)
पानी से संबंधित सूचनाओ,समाचारों और सन्दर्भों का संकलन –पानी पत्रक
पानी पत्रक(178-
5 अक्टूबर2024)जलधारा अभियान,221,पत्रकार
कॉलोनी,जयपुर-राजस्थान,302020,संपर्क-उपेन्द्रशंकर-7597088300.मेल-jaldharaabhiyan.jaipur@gmail.com
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