सोमवार, 25 नवंबर 2024

यह प्रदूषण कोई प्राकृतिक आपदा नहीं बल्कि मुनाफ़े की ज़द से पैदा की हुई व्यवस्था निर्मित आपदा है

 देश की राजधानी दिल्ली दुनिया के सबसे प्रदूषित जगहों में से एक है और आज प्रदूषण इस स्तर तक बढ़ चुका है कि दिल्ली में साँस लेना भी मुश्किल जान पड़ता है। दिल्ली में वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) 500 के पार पहुँच चुका है, जोकि केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के मापक में उच्चतम पैमाना है। अन्तरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार यह आँकड़ा 1600 तक पहुँचा है। पूरी दिल्ली समेत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCR) में धुन्ध की एक मोटी परत जमी दिखायी दे रही है। आपको बता दें कि वायु गुणवत्ता सूचकांक ऐसा पैमाना होता है जिससे हवा की गुणवत्ता का पता लगाया जाता है और फ़िलहाल यह विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मानकों के अनुसार बेहद ही ख़तरनाक स्तर तक पहुँच चुका है। सामान्य वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) 50 या इससे कम होता है, अर्थात् अभी हम सामान्य से कई गुना बदतर हवा में साँस लेने को मजबूर हैं।

दिल्ली में प्रदूषण का होना कोई नयी बात नहीं है, पर इस दफ़ा यह अपने बदतर हालत में पहुँच चुका है। दिल्ली के इस प्रदूषण के दो मुख्य स्रोत हैं। पहला वो जो इसके लिए तात्कालिक तौर पर ज़िम्मेदार है और दूसरा वह जो इसके दीर्घकालिक कारण के लिए जिम्मदार हैं, जो इसका बुनियादी कारण भी है, जिसपर हम आगे बात करेंगे। 

तात्कालिक तौर पर बात करें तो सर्दियों के महीनों में दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण और वायु गुणवत्ता और भी ख़राब हो जाती है। सर्दियों में तापमान के कम होने से ज़मीन के पास ठण्डी हवा की एक परत बन जाती है, जो प्रदूषकों को फँसा लेती है, जो हवा में पहले से मौजूद होते हैं और उन्हें फैलने से रोकती है। साथ ही, सर्दियों के दौरान हवा की कम गति प्रदूषकों के फैलाव को कम करती है। फिर पंजाब और हरियाणा जैसे पड़ोसी राज्यों में इन महीनों में फ़सल अवशेष (पराली) जलाना भी इस प्रदूषण का एक बड़ा कारण होते हैं। अन्य कारणों में दिवाली में बड़े पैमाने पर पटाखों का जलाना भी शामिल है। 

दीर्घकालिक स्रोत, अर्थात् जो इस जानलेवा प्रदूषण के बुनियादी कारण का भी काम करता है, उनमें सबसे बड़ा हिस्सा दिल्ली और इसके आसपास बने कारख़ानों से आता है, जिसपर कोई भी रोक-टोक नहीं है। ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान (टेरी) की 2021 की एक रिपोर्ट के अनुसार (जो सबसे नवीनतम आँकड़ा है), एनसीआर (जिसमें दिल्ली, हरियाणा के 13 ज़िले, यूपी के आठ ज़िले और राजस्थान के दो ज़िले) में उद्योगों का कुल प्रदूषण में 40% से ज़्यादा योगदान है। रिपोर्ट में पार्टिकुलेट मैटर (पीएम 10 में 41% योगदान, पीएम 2.5 में 44%) का सबसे बड़ा स्रोत कारख़ानों को बताया गया है, इसके बाद स्टोन क्रशर (पीएम 10 में 22%, पीएम 2.5 में 19%) का स्थान है। पीएम 10 और पीएम 2.5 बेहद ही छोटे व ज़हरीली गैस के कण होते हैं जो आसानी से हमारे साँस के माध्यम से फेफड़ों में चले जाते हैं। अन्य ज़हरीली गैसों में एनसीआर में पावर-प्लाण्ट सल्फ़र डाइऑक्साइड, SO2 (46%) का सबसे बड़ा उत्सर्जक है, जबकि परिवहन कार्बन मोनोऑक्साइड (97%), वाष्पशील कार्बनिक यौगिक, VOCs (58%) और नाइट्रोजन ऑक्साइड्स, NOx (66%) का सबसे बड़ा उत्सर्जक है। वैसे पराली की तुलना में बात करें तो थर्मल-पावर प्लाण्ट्स 16 गुना ज़्यादा सल्फर डाइऑक्साइड (SO) उत्सर्जित करते हैं।

यही नहीं, दिल्ली जैसे शहर में प्रदूषण के बेहिसाब बढ़ने का एक और कारण यह है कि दिल्ली में इस शहर की क्षमता से काफ़ी ज़्यादा आबादी रहती है। इसका कारण यह है कि आज पूरे देश में कारख़ानों और नौकरियों का एक असमान बँटवारा होने के कारण दिल्ली जैसे शहर में एक बड़ी आबादी पलायन करती है, और यहाँ हर तरह से दबाव बढ़ जाता है। इतनी बड़ी आबादी के साथ ही परिवहनों की संख्या भी यहाँ अत्यधिक हैं, जोकि अच्छे और सस्ते सार्वजानिक परिवहन के न होने के कारण है। दिल्ली की हवा को प्रदूषित करने में इसका भी बहुत बड़ा योगदान है। 

कुल मिलाकर बात यह है कि प्रदूषण के मुख्य रूप से ये दीर्घकालिक स्रोतों ज़िम्मेदार हैं। ये सालों भर हवा को प्रदूषित करते रहते हैं और आख़िर में जब प्रदूषण अचानक से बढ़ जाता है तो तात्कालिक तौर पर खानापूर्ति करने के लिए कुछ उपाय शुरू कर दिये जाते हैं। लेकिन इस प्रदूषण के स्रोतों के कारण क्या हैं, आइए समझते हैं।

अक्सर तमाम न्यूज़ चैनलों, टीवी, अख़बारों के ज़रिए हमें बताया जाता है कि देश और दिल्ली में हो रहे प्रदूषण के लिए हम, यानी आम जनता ज़िम्मेदार है । हमने अपना काम ठीक से नहीं किया, इसलिए प्रदूषण बढ़ रहा है। लेकिन यह सच नहीं है। इसके लिए तो मुख्य तौर पर वह सरकार और वे कारख़ाना मालिक ज़िम्मेदार हैं जो अपने मुनाफ़े की अन्धी हवस में प्रकृति को किसी भी हद तक निचोड़ने को तैयार हैं, बिना इसकी परवाह किये कि इसका इस धरती पर क्या प्रभाव पड़ेगा। उत्पादन बढ़ाने के लिए कारख़ानों में तमाम सुरक्षा पैमानों को धता बता दिया जाता है और इन कारख़ानों में बेरोकटोक उत्पादन जारी रहता है। वैसे ही तमाम बड़े किसानों द्वारा पराली को जला दिया जाता है और सरकार कुछ नहीं करती या नाम के लिए कुछ एफआईआर दर्ज़ कर लेती है। पूँजीपतियों के लिए काम कर रही यह सरकार उन्हें खुला छूट देती है और दोषारोपण आम जनता पर किया जाता है। 

संक्षेप में कहें तो उद्योगों से, यातायात के विभिन्न साधनों से, जीवाश्म ईंधन के जलने से, जंगलों की आग से पैदा होने वाला धुआँ और रेडिएशन प्रदूषण के सबसे बड़े कारण हैं। और इन कारणों के कारण क्या हैं? अक्सर इसका कारण बढ़ती हुई आबादी को बताया जाता  है । प्रदूषण के बढ़ने और अनियन्त्रित होने का कारण बढ़ती हुई आबादी नहीं है, बल्कि मुनाफ़े पर टिकी हुई पूँजीवादी व्यवस्था है। इस व्यवस्था में कोई भी उत्पादन, वाहन या कारख़ाना, आबादी की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नहीं बल्कि मुनाफ़े के लिए होता है। यहाँ तक कि खाद्य पदार्थों का उत्पादन  भी! ज़ाहिर है, इसलिए प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार भी मुनाफ़े पर आधारित व्यवस्था है, न कि आम आबादी। इतना ही नहीं इस अन्धी हवस में जो अतिरिक्त उत्पादन होता है तथा इस उत्पादन की प्रक्रिया में जो कचड़ा निकलता है वह सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जन के स्रोतों में आते हैं और यही इस पूरी धरती पर ग्लोबल वार्मिंग के लिए भी ज़िम्मेदार होते हैं।

आम जनता और मेहनतकश आबादी प्रदूषण और सरकार-न्यायपालिका के फ़ैसलों से दोहरी मार झेलती  है । एक तो इस प्रदूषण के कारण दूषित हवा में साँस लेने के अलावा हमारे पास कोई अन्य विकल्प नहीं है। एक आँकड़े के मुताबिक़ दिल्ली की प्रदूषित हवा में साँस लेना हर रोज़ 49 सिगरेट पीने के बराबर है। वहीं दूसरी तरफ़ बड़े पूँजीपतियों और पैसे वालों के लिए उनके बंगलों में, उनके ऑफिसों और कारों तक में एयर प्यूरीफ़ायर लगे होते हैं। इस गन्दी हवा में साँस लेने से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कमज़ोर होती है और यह ह्रदय व श्वसन सम्बन्धी कई बीमारियों को जन्म देता है। इतना ही नहीं लम्बे समय तक इसके सम्पर्क में रहने से मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ जैसे चिन्ता, अवसाद आदि भी पैदा होता है। बच्चे, बुजुर्ग और पहले से ही किसी चिकित्सा समस्या से जूझ रहे आम लोग विशेष रूप से इससे प्रभावित होते हैं।

साथ ही प्रदूषण बढ़ने पर सरकार और न्यायपालिका द्वारा आनन-फानन में अलग-अलग प्रतिबन्ध लगा दिये जाते हैं। जैसे तमाम निर्माण कार्य पर रोक लगाना, स्कूल-कॉलेज बन्द कर देना, कई परिवहनों पर रोक लगाना तथा सरकारी मानकों को न मानने का हवाला देकर लोगों पर जुर्माना लगाना इत्यादि । इन सभी चीज़ों का ज्यादा  प्रभाव भी आम लोगों पर ही पड़ता है, जिससे हमें यह महसूस कराया जाता है जैसे आम जनता ही इस भयावहता के लिए ज़िम्मेदार हों! प्रदूषण से निपटने के इन तत्कालिक उपायों में कभी भी मेहनतकश और आम जनता का ख़्याल ही नहीं किया जाता। उदाहरण के लिए निर्माण कार्य में लगी ज़्यादातर आबादी दिहाड़ी मज़दूरों की होती है। निर्माण कार्य पर प्रतिबन्ध लगने से उनकी रोज़ की कमाई रुक जाती है, किन्तु सरकार और न्यायपालिका के लिए यह कभी मुद्दा ही नहीं होता। वहीं दूसरी तरफ़ कारख़ानों में उत्पादन को वैसे ही बदस्तूर जारी रखा जाता है या हालात बेहद नाज़ुक होने पर कुछ नाममात्र के प्रतिबन्ध लगा दिये जाते हैं, क्योंकि वह पूँजीपतियों के मुनाफ़े का मसला होता है। वैसे ही आज पराली जलाने की गम्भीर समस्या के भी कई तकनीकी समाधान विकसित हो चुके हैं, लेकिन उसके खर्चीले होने के कारण धनी किसान भी उसे जलाना ही सही समझते हैं। 

फ़िलहाल एनसीआर में ग्रैड-4 (ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान-4) लागू कर दिया गया है. इसमें कहने को तो इस प्रदूषण से निपटने के लिए कई उपाय सुझाये गये हैं, लेकिन कोई भी इसमें दीर्घकालिक तौर पर कारगर नहीं माना जा सकता .

इस जानलेवा प्रदूषण के ज़िम्मेदार हम और आप नहीं बल्कि यह सरकार, ये पूँजीपति वर्ग और यह व्यवस्था है। सीधे शब्दों में पर्यावरणीय विनाश की समस्या वास्तव में पूँजी की समस्या है, पूँजी के निजी संचय को बरकरार रखने के लिए प्राकृतिक संसधानों का इतना अधिक दोहन किया जाता है कि पारिस्थतिकी तन्त्र पर संकट खड़ा हो जाता है। अगर मुट्ठीभर लोगों के मुनाफ़े को बरकरार रखने के बजाय मानवीय आवश्यकता के लिए उत्पादन हो, तो पारिस्थितिकी तन्त्र के विनाश के समस्या पर काफ़ी हद तक क़ाबू पाया जा सकता है। 

पर्यावरणीय विनाश को रोकने का प्रश्न सीधे व्यवस्था परिवर्तन के प्रश्न से जुड़ता है। आज समाज का वह तबका यानी छात्र व वैज्ञानिक जो जलवायु परिवर्तन व पारिस्थितिकी तंत्र के विनाश के वैज्ञानिक कारणों को समझ रहे हैं, उनका यह कर्तव्य बन जाता है कि आम जनता तक भी इस जानकारी को लेकर जाए। इसके साथ ही हमें अपनी सरकारों के उस रवैये पर भी पैनी निगाह रखनी होगी, जिसके तहत वे बड़े-छोटे पूँजीपतियों को प्राकृतिक संसाधनों की लूट और पारिस्थितिकी तन्त्र को नुक़सान पहुँचाने की खुली छूट देती है। ऐसे हरेक क़दम पर लोगों को संगठित होकर आवाज़ उठानी होगी। आज देश के स्तर पर पर्यावरणीय विनाश के प्रश्न पर उठ रहे आन्दोलनों को एक सूत्र में पिरोते हुए राष्ट्रीय स्तर पर आन्दोलन खड़ा करना होगा। ऐसा आन्दोलन जो सिर्फ़ महज़ कुछ सुधारों व क़ानूनों की माँग तक सीमित न हो, बल्कि मुनाफ़े और लूट पर आधारित पूँजीवादी व्यवस्था जो पर्यावरणीय विनाश का मुख्य कारण है, उस पर प्रश्न खड़ा करे। ऐसी लम्बी लड़ाई की शुरुआत पर्यावरण के मसलों पर ठोस माँगो के इर्द गिर्द आन्दोलन खड़े कर की जा सकती है। 

 दिल्ली व देश के अन्य हिस्सों में भयवाह वायु प्रदूषण की स्थिति से निपटने के लिए   दिनांक  24 नवम्बर 2024 को साइण्टिस्ट्स फॉर सोसाइटी ने अन्य  प्रगतिशील व्यक्तियों और संगठनों और जैसे दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा के साथ मिलकर  जन्तर-मन्तर पर जलवायु संकट और आम जनता को परेशान करने वाले घातक प्रदूषण से निपटने में केन्द्र और दिल्ली सरकार की विफलता के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन आयोजित किया।

प्रदर्शन के भागीदारों ने केन्द्र व राज्य सरकारों से माँग की ---

*फैक्ट्रियों से निकलने वाले अपशिष्ट को पर्यावरण के लिए सुरक्षित मानदण्ड के हिसाब से निस्तारण किया जाए। 

* ऐसे सभी फैक्ट्री मालिकों पर सख़्ती से कार्रवाई की जाए जो इन मानदण्डों का उल्लंघन कर रहे हों।  

* सार्वजनिक परिवहनों का बेहतर और सस्ता नेटवर्क खड़ा हो जिससे हर किसी के पास आसानी से सफ़र करने का विकल्प मौजूद हो। साथ ही, अत्यधिक प्रदूषण करने वाले वाहनों को प्रतिबन्ध किया जाए।

* फैक्ट्रियों को विकेन्द्रित किया जाए और देश के अन्य इलाक़ों में इनका विस्तार किया जाए जिससे दिल्ली जैसे शहरों के भार को कम किया जा सके। 

* जुर्माना आम जनता पर थोपने के बजाय उन पूँजीपतियों पर लगाये जाएँ जो असल में इस पूरे प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार हों। जब तक इन मानकों को पूरा नहीं किया जाएगा तब-तक प्रदूषण को रोका नहीं जा सकता।

* सीवरों का पानी नदियों में जाने के पहले इसकी ट्रीटमेण्ट की व्यवस्था की जाए। 

* वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों के अनुसन्धान के लिए बजट में ख़र्च बढ़ाया जाए। 

* अगर निर्माण कार्य पर रोक लगाया जा रहा है तो रोज़ काम करके खाने वाले सभी निर्माण मज़दूरों को गुज़ारा भत्ता दिया जाना चाहिए। 

* तात्कालिक तौर पर यदि स्कूल और कॉलेज बन्द भी किये जा रहे हैं तो यह पक्का किया जाये कि हर बच्चे के पास संसाधन मौजूद हो की वह पढ़ सके। 

* पराली के निस्तारण के लिए राष्ट्रीय स्तर पर नीति बनायी जाए। 

 

( सन्दर्भ - साइण्टिस्ट्स फॉर सोसाइटी ग्रुप व्हाट्सएप्प ,सम्पर्क: 8210190662

वेबसाइट: www.scientistsforsociety.com फेसबुक: @scientists4society इन्स्टाग्राम: @scientistsforsociety )

पानी पर्यावरण से संबंधित सूचनाओ,समाचारों और सन्दर्भों का संकलन –पानी पत्रक

पानी पत्रक (192– 26 नवम्बर 2024) जलधारा अभियान221,पत्रकार कॉलोनी,जयपुर-राजस्थान,302020, संपर्क-उपेन्द्रशंकर-7597088300.मेल-jaldharaabhiyan.jaipur@gmail.com



 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

पाकिस्तान की कृषि बर्बाद हो रही है: आर्थिक सर्वेक्षण ने सरकारी नीतियों की विफलता को उजागर किया

पाकिस्तान का कृषि क्षेत्र ढह रहा है - और इसका दोष पूरी तरह से शहबाज शरीफ सरकार की विनाशकारी नवउदारवादी नीतियों पर है। संघीय बजट से पहले 9 ज...