गुरुवार, 27 मार्च 2025

कोशी पीड़ितों तक राहत क्षतिपूर्ति, पुनर्वास व अन्य कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन के गैप को दूर किया जाए : जस्टिस अरुण कुमार

सितंबर 2024 के आखिरी दिनों में नेपाल और बिहार के कई इलाकों में भारी बारिश के बाद कोसी क्षेत्र में दशकों बाद आई विनाशकारी बाढ़ के लोंगों की ज़िन्दगी को तहस नहस कर डाला। इस बार तटबंध और बैराज बनने के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि कोशी नदी का पानी बैराज से ऊपर निकलने लगा, सुपौल जिले में पूर्वी तटबंध की सुरक्षा के लिए बने अनेक स्पर क्षत-विक्षत हो गए तो सहरसा, दरभंगा जिले में अनेक जगह तटबंध के ऊपर से पानी बह चला। अंत में दरभंगा जिले  कीरतपुर प्रखंड के भूभौल में तटबंध टूट गया। जिसके बाद सामने वाला गांव भूभौल पूरी तरह बर्बाद हो गया। इस भीषण बाढ़ में तटबंध के बीच के लोग भूखे -प्यासे  भयावह स्थिति में रहकर जान बचाए।

बाढ़ के बाद सरकार, राहत क्षतिपूर्ति के लिए बने अपने ही मानक संचालन प्रक्रिया और मानदर का अनुपालन करने में नाकाम रही है। जिनके घर बाढ़ या नदी के कटाव में विलीन हो गए या जानवर बह गए उसकी क्षतिपूर्ति अब तक नहीं मिली है। हर साल तटबंध के भीतर रह रहे पुनर्वास से वंचित लोगों को इस तरह की आपदा भोगने पर विवश हैं। उनके पुनर्वास की बात नहीं होती है।

कोशी नवनिर्माण मंच द्वारा अनेक बार उनकी मांगें उठाई गई, मांगपत्र भी दिया गया है, सुपौल में धरना भी आयोजित हुआ है पर कोई प्रगति नहीं दिख रही है। सरकार, प्रशासन और नागरिक समाज इन पीड़ितों को भूलता जा रहा है। इन समस्याओं की तरफ नागरिक समाज और सरकार का ध्यान आकृष्ट कराने गांधी संग्रहालय, पटना में एक जनसुनवाई का आयोजन किया गया।

कोशी नवनिर्माण मंच द्वारा कोशी पीड़ितों की गृहक्षति सहित अन्य क्षतिपूर्ति दिलाने, कोशी तटबंध के भीतर के लोगों के पुनर्वास के सवाल पर पटना के गांधी संग्रहालय में यह जन सुनवाई आयोजित की गयी।

जनसुनवाई में सुपौल जिले के किशनपुर प्रखंड की बेला की रेखा देवी भूखे प्यासे बाढ़ में बिताए दिनों को याद करते हुए कहा कि बच्चों को छप्पर पर किसी तरह बैठाकर जान बचाए। उस पर भी सांप आ गया तो किसी तरह हटा कर छोटी नाव पर जान बचाए। हम लोगों को पुनर्वास नहीं मिला है सरकार पुनर्वास दे। वो अपने गांव में सांप काटने के बाद छोटी नाव में बैठाकर नदी पार करते समय बच्चे की हुई मौत की दर्दनाक कहानी बताई।

सुपौल अंचल के बलवा गांव के डुमरिया गांव की प्रमिला देवी ने कहा कि मेरा घर नदी में समा गया आज तक गृह क्षति भी नहीं मिली है दूसरे आदमी ने अपने घर में शरण दिया पर उनका घर भी छोटा था तो अंत में वहां से बांध पर आकर पल्ली डालकर रह रहे है। धूल और धूप से बच्चे बीमार हो रहे है। बाढ़ के समय ससुर बीमार थे दवा का उचित प्रबंध नहीं होने से उनकी मौत हो गई। सासू अंधी हो गई है तीन बच्चे है इन सभी के इलाज में एक लाख का कर्ज हो गया। इधर उधर मजदूरी करके घर चला रहे है जब किसी को अपना घर बुहारते देखते है तो मन में टीस उठती है कि मेरा घर भी होता तो मै भी बुहारती। मेरे जिंदगी की एक ही तमन्ना है कि पुनर्वास मिले जहां मेरा अपना झोपडी भी बना लूं । मजदूरी करके अपना गुजर कर लेंगे।

संतोष मुखिया और आलोक राय ने नाव की अनुपलब्धता बाढ़ में हुई पीड़ा और पुनर्वास में दबंगों के अवैध कब्जे की बात कहते हुए कहा कि इसके अभाव में हम लोगों के गांव आज यहां है दूसरे साल कहीं और जाकर बसना पड़ता है। चन्द्रबीर नारायण यादव ने दरभंगा जिले के भूभौल के पीड़ितों को टूटे घरों को क्षति नहीं मिलने सहित अन्य वहां के नदी के सवाल को उठाया । कोशी महा सेतु के प्रभाव पर एडवोकेट अजीत मिश्रा ने बात रखी।

दयारानी देवी ने बाढ़ में कहा कि मेरे घर का बच्चा जब चौकी पर पानी आ गया तो छप्पर पर रखा उसके कुछ लाने गई तब तक बच्चा गिरकर पानी में बहने लगा। यह देखकर चिल्लाई और पानी में भागकर बचाई दो घंटे बाद उसका होश आया कुछ नहीं मिला है यदि पुनर्वास मिल जाता तो यह भोगना नहीं पड़ता। राजेन्द्र यादव ने नाव डूबने की खबर आने के बाद पानी में घर वाले जीवित है कि नहीं यह जानकारी नहीं मिलने पर ही पीड़ा का वर्णन करते हुए फफक उठे और बोले कि दो दिन बाद उनके जीवित होने की जानकारी दी। फूल कुमारी, अरणी देवी, बादामी देवी, प्रियंका, रेखना देवी, प्रदीप राम, सदरुल, अरविंद मेहता, बिजेंद्र सदा, शिव शंकर मंडल, चंद्र मोहनभागवत पंडित  इत्यादि ने अपने दुःख भरी दास्तान सुनाई । 25 मार्च को जनसुनवाई में पटना विश्वविद्यालय की भूगोल प्रो देबरानी, सामाजिक कार्यकर्ता कुणाल किशोर, इंदिरा रमण उपाध्याय, डॉ रिंकी, किरणदेव, जवाहर निराला, गांधीवादी रमन, अमर, सदानंद इत्यादि ने पीड़ित लोगों के साथ एकजुटता व्यक्त किया। बाढ़ पीड़ितों की स्थिति के अध्ययन की जानकारी शोधार्थी आरिफ ने रखी।

जनसुनवाई को मुख्य अतिथि के रूप में  संबोधित करते हुए पटना उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश जस्टिस अरुण कुमार ने कहा कोशी पीड़ितों की बातों से स्पष्ट हो रहा है कि इनके लिए आपदा और कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में गैप है जिसे दूर करना चाहिए। वहीं बिहार राज्य आपदा प्राधिकरण के पूर्व उपाध्यक्ष और अवकाश प्राप्त वरिष्ठ आईएएस पदाधिकारी व्यास ने कहा कि लोगों की बातें सुनने से दो बातें समझ में आई है पहली तात्कालिक आपदा विभाग के बाढ़ पर बने मानक संचालन प्रक्रिया व मानदर को कोशी पीड़ितों को दिया जाए। दूसरा दीर्घकालिक मांग है जिसमें पुनर्वास देना और कोशी पीड़ित विकास प्राधिकार को सक्रिय करना है। उन्होंने आयोजकों को सलाह दिया योजनाओं के आपदा की तैयारियों व क्रियान्वयन में जन भागीदारी कर धरातल पर उतारने में मदद करें।

प्रो पुष्पेंद्र ने कहा कि यह बहुत दुखद बात है कि कोशी के पीड़ितों को आज पटना में आकर अपनी विपदा की कहानी कहनी पड़ रही है। राहत पुनर्वास को सरकार को जल्द पूरा करना चाहिए। वहीं लोगों को सरकार नहीं सुनती है तो संगठन को मजबूत कर राजनैतिक मुद्दा के रूप में स्थापित करना होगा।

प्रो मधुबाला ने कहा कि राज्य के आपदा विभाग और प्राधिकरण मुख्यमंत्री के नारे पर चलती है कि सरकारी खजाने पर आपदा पीड़ितों का पहला अधिकार है पर आज कोशी पीड़ित लोगों की बातों को सुनने से लगता है कथनी और कहनी में अंतर है उसे अविलंब क्रियान्वयन करना चाहिए।

आपदा प्रबंधन विभाग के अपर मुख्य सचिव और जल संसाधन विभाग के प्रधान सचिव को भी आमंत्रित किया गया था पर वे उनकी तरफ से कोई प्रतिनिधि भी नहीं आया। जन सुनवाई का संचालन महेन्द्र यादव और इंद्र नारायण ने किया .

( सन्दर्भ / साभार – कुमार कृष्णन -Sarvodaya Press Service )

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शनिवार, 22 मार्च 2025

पेरू का यह किसान जर्मनी की जीवाश्म ईंधन की दिग्गज कंपनी से लड़ रहा है - आपको यह सब जानना चाहिए

(2015 में, हुआराज़ के एक किसान और पर्वतारोही गाइड, सॉल लुसियानो लियुया ने जर्मन ऊर्जा दिग्गज RWE के खिलाफ़ मुकदमा दायर किया। शिकायत में कहा गया है कि यूरोप में सबसे बड़े उत्सर्जकों में से एक के रूप में, कंपनी जलवायु परिवर्तन और हुआराज़ में संबंधित बाढ़ के जोखिम के लिए आंशिक रूप से जिम्मेदार है, और उसे लेक पल्काकोचा में नियोजित बांध और जल निकासी उपायों में वित्तीय रूप से योगदान देना चाहिए)

उत्तर-पश्चिमी पेरू में हुआराज़ शहर समुद्र तल से 10,000 फीट से अधिक की ऊंचाई पर स्थित है, जो कॉर्डिलेरा ब्लैंका पर्वत श्रृंखला की ऊंची चोटियों से घिरा हुआ है। तेजी से फैलती पाल्काकोचा झील से शहर को लगातार खतरा बना हुआ है। ग्लेशियरों के पिघलने के कारण यहां पहले भी विनाशकारी बाढ़ की घटनाएं हो चुकी हैं।

1941 में एक ग्लेशियर का बड़ा टुकड़ा झील में गिर गया, जिससे एक बड़ी बाढ़ और भूस्खलन हुआ, जिसने हुआराज़ को दफन कर दिया, जिससे हज़ारों निवासियों की मौत हो गई। जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पिघलने से झील का आयतन 1970 की तुलना में 34 गुना बढ़ गया है। चल रहे ग्लेशियर पिघलने से बाढ़ के जोखिम को कम करने के लिए कई उपाय किए गए हैं, जिसमें पानी निकालने और जल स्तर को कम करने के लिए होज़, आपातकालीन प्रबंधन कर्मचारियों द्वारा 24 घंटे की निगरानी, ​​झील की स्थिति की सार्वजनिक रूप से सुलभ लाइव स्ट्रीम और सार्वजनिक चेतावनी प्रणाली शामिल हैं। हालाँकि, ये रणनीतियाँ हुआराज़ निवासियों को 1941 में शहर को तबाह करने वाली बाढ़ जैसी बड़ी बाढ़ से बचाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। पिघलने की संभावना के लिए अंततः ग्लेशियर के एक और बड़े हिस्से को झील में गिरने की संभावना को देखते हुए , शहर के अधिकारी एक एकीकृत पंपिंग स्टेशन और जल निकासी अवसंरचना प्रणाली के साथ एक बड़ा सुरक्षात्मक बांध बनाने की योजना बना रहे हैं जो जल स्तर में अचानक, बड़ी वृद्धि का सामना कर सके।

2015 में, हुआराज़ के एक किसान और पर्वतारोही गाइड, सॉल लुसियानो लियुया ने जर्मन ऊर्जा दिग्गज RWE के खिलाफ़ मुकदमा दायर किया। शिकायत में कहा गया है कि यूरोप में सबसे बड़े उत्सर्जकों में से एक के रूप में, कंपनी जलवायु परिवर्तन और हुआराज़ में संबंधित बाढ़ के जोखिम के लिए आंशिक रूप से जिम्मेदार है, और उसे लेक पल्काकोचा में नियोजित बांध और जल निकासी उपायों में वित्तीय रूप से योगदान देना चाहिए।

संभावित नई कानूनी मिसाल

RWE के खिलाफ़ मामला सामान्य कानून के आधार पर है, जिसमें एक बुनियादी सिद्धांत है कि जिनके साथ अन्याय हुआ है, वे उन लोगों से सुधार का दावा कर सकते हैं जिन्होंने उनके साथ अन्याय किया है।

येल लॉ स्कूल के एक प्रोफेसर डगलस किसर के विश्लेषण के अनुसार, किसान की शिकायत में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन में RWE के योगदान ने ग्लेशियल पिघलन, लेक पल्काकोचा की मात्रा और हुआराज़ में बाढ़ के जोखिम को बढ़ा दिया है। इस प्रकार, RWE खतरे के प्रबंधन से जुड़ी लागतों के लिए आनुपातिक रूप से जिम्मेदार है। किसान की कानूनी टीम ने अनुमान लगाया कि वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में RWE का हिस्सा 0.47% है - बांध और जल निकासी प्रणाली निर्माण की लागत का 0.47% लगभग €20,000 (US$21,677) है। यह एकल राशि RWE के लिए महत्वहीन होगी, जिसने 2023 में €4.5 बिलियन की शुद्ध आय की सूचना दी थी। हालाँकि, RWE और अन्य कॉर्पोरेट उत्सर्जकों के लिए एक बड़ा खतरा दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन से सीधे प्रभावित होने वाले लाखों संभावित वादी हैं।

यह मामला पहले से ही अभूतपूर्व है क्योंकि जर्मनी में हैम का उच्च क्षेत्रीय न्यायालय इस बात की पुष्टि करने वाला पहला कानूनी निकाय बन गया है कि, सिद्धांत रूप में, एक निजी कंपनी जलवायु परिवर्तन से संबंधित नुकसान के अपने हिस्से के लिए जिम्मेदार है, अगर व्यक्तियों या उनकी संपत्ति को नुकसान या जोखिम कंपनी के संचालन के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।

17 मार्च 2025 की सुबह हम्म में उच्च क्षेत्रीय न्यायालय के रास्ते पर साउल

साउल लुसियानो लियुया द्वारा आरडब्ल्यूई के खिलाफ़ जलवायु मुकदमा दायर करने के लगभग दस साल बाद, प्रक्रिया एक निर्णायक चरण का सामना कर रही है। साक्ष्य के पहले प्रश्न पर सुनवाई 17 और 19 मार्च को हैम में उच्च क्षेत्रीय न्यायालय में हुई।

17 मार्च की सुनवाई में वादी की संपत्ति के लिए बाढ़ के जोखिम के वैज्ञानिक साक्ष्य पर ध्यान केंद्रित किया गया। न्यायालय के समक्ष एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह था कि लुसियानो लियुया के घर और परिवार को किस हद तक खतरा है। उनके मुकदमे में तर्क दिया गया है कि RWE को सुरक्षात्मक उपायों में अपना उचित हिस्सा देना चाहिए, क्योंकि जलवायु प्रभावों को बढ़ाने में इसकी भूमिका उनके समुदाय को खतरे में डाल रही है।

सुनवाई के दूसरे दिन यानि 19  मार्च को , वादी लुसियानो लियुया के पक्ष के वैज्ञानिकों ने न्यायालय द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्षों को चुनौती दी, जिसमें महत्वपूर्ण "अंधे धब्बों" पर प्रकाश डाला गया। उन्होंने तर्क दिया कि रिपोर्ट ने पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से होने वाले रॉकफॉल के जोखिम को बहुत कम करके आंका और जलवायु परिवर्तन के त्वरित प्रभावों को पूरी तरह से ध्यान में नहीं रखा। वादी की कानूनी टीम ने चेतावनी दी कि हुआराज के लिए बाढ़ का जोखिम स्वीकार किए जाने से कहीं अधिक है और न्यायालय से तदनुसार कार्य करने का आग्रह किया।

न्यायालय कक्ष में लोगों की उपस्थिति

 न्यायाधीशों ने घोषणा की है कि वे 14 अप्रैल 2025 को प्रक्रिया के अगले चरणों पर निर्णय लेंगे। इससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि क्या आरडब्ल्यूई को हुअराज में वादी द्वारा सामना किए जा रहे बाढ़ के जोखिम के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है या नहीं।

पर्यावरण और विकास संगठन जर्मनवाच मुख्य रूप से प्रेस और जनसंपर्क कार्य के माध्यम से मुकदमे का समर्थन कर रहा है। स्टिफ्टंग ज़ुकुनफ़्ट्सफ़ाहिगकिट ने कानूनी लागतों का भुगतान करने पर सहमति व्यक्त की है और दान के लिए आह्वान किया है।

19 मार्च 2025 की सुबह कोर्ट के सामने समर्थक

जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई के लिए न्यायालय एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में उभरे हैं। पिछले दो दशकों में वैश्विक जलवायु मुकदमेबाजी मामलों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है, जो 2005 में 20 मामलों से बढ़कर 2023 में 251 मामलों तक पहुँच गई है।

(सन्दर्भ /साभार-Earth.org, Press release –the climate case-saul vs RWE )

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मंगलवार, 18 मार्च 2025

आख़िर कब तक अफ्रीकी महिलाओं को पानी लाने के लिए मीलों चलना पड़ेगा

 

(7 मार्च, 2024 को बुलावायो, ज़िम्बाब्वे के पुमुला ईस्ट टाउनशिप में एक कुएं से पानी लाने के बाद लोग पैदल घर लौटते हुए- स्रोत -केबी मपोफू/रॉयटर्स)

संयुक्त राष्ट्र के विकास कार्यक्रम (UNDP) की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि उप-सहारा के देशों की महिलाओं के सालाना चालीस अरब घंटे पानी लाने में लगते हैंयह फ्रांस के पूरे श्रम बल के एक साल के काम के घंटों के बराबर है। पूरे उप-सहारा क्षेत्र में पानी की सुविधाओं के लिए इंफ़्रास्ट्रक्चर तैयार करने में जितने धन की ज़रूरत है और जितना धन इस काम के लिए उपलब्ध है, उसमें अन्दाज़तन 11 अरब अमेरिकी डॉलर का फ़र्क़ है। ऑक्सफैम के अनुसार यह दुनिया के अरबपतियों की दो दिन की आमदनी के बराबर है। उप-सहारा के देश अपना क़र्ज़ अदा करने के लिए प्रतिदिन 447 लाख डॉलर चुकाते हैंअगर वे 25 दिन यह धन पीने के पानी की सुविधाओं के लिए लगाएँ तो इस क्षेत्र के हर घर तक पाइप द्वारा पीने का पानी पहुँचाया जा सकता है। लेकिन दुनिया को फ़र्क़ नहीं पड़ता कि अफ्रीकी महिलाएँ मीलोंमील चलकर पीने का पानी लाने को मजबूर हैं जबकि इस धरती पर जो सामाजिक संसाधन पैदा किए जा रहे हैं उनके छोटे से हिस्से को ख़र्च करके ही इन्हें इस काम से आज़ाद कराया जा सकता है। इस काम के लिए पाइप बनाने और अन्य यंत्रों के निर्माण से उद्योगों का विकास होगा जिससे रोज़गार उत्पन्न होगा और लोगों को उस ग़रीबी से उबारा जा सकेगा जो दुनिया भर की औरतों को दबोचे हुए है।

पीने का पानी लाने के लिए मीलों चलने को मजबूर इन महिलाओं में से ज़्यादातर ग्रामीण इलाक़ों में रहती हैं और खेतिहर मज़दूर या छोटे किसान के तौर पर काम करती हैं। इनके लिए पानी लाने के काम और मातृत्वपालन-पोषण इत्यादि जैसे अन्य कामों पर घंटों लगाने का मतलब है कि खेतों में उनकी उत्पादकता कम हो जाना। पहले ही पुरुषों के मुक़ाबले उनकी औसत उत्पादकता की दर 24% कम है (यह तथ्य संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन की 2023 की द स्टेटस ऑफ़ विमन इन एग्रीफ़ूड सिस्टम्स  में सामने आया)।

कृषि क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति पर प्रामाणिक आँकड़े कम मिलते हैं। इसकी मुख्य वजह है कि दुनिया के कई हिस्सों में महिलाओं को किसानों के रूप में नहीं बल्कि खेतों में उनके सहायकों के रूप में देखा जाता है। इस रवैये की वजह से महिलाओं और पुरुषों की मज़दूरी में भारी असमानता है - महिला खेतिहर मज़दूरों को औसतन पुरुषों के मुक़ाबले 18.4% कम मज़दूरी मिलती है। 

वैश्विक दक्षिण के कई हिस्सों में महिलाएँ कृषि खाद्य प्रणालियों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं और कृषि उनकी आय का एक बड़ा साधन है (अफ़्रीका के सब-सहारा क्षेत्र में 66% महिलाएँ कृषि क्षेत्र में काम करती हैं जबकि पुरुषों में यह आँकड़ा 60% हैदक्षिण एशिया में तो 71% महिलाएँ कृषि क्षेत्र में काम करती हैं और पुरुष सिर्फ़ 47%).दुनिया के इन हिस्सों में महिलाएँ अपने परिवार और अपने भरण पोषण के लिए कृषि क्षेत्र में अपने कम आय वाले काम पर ही निर्भर हैं। जब उनका रोज़गार गिरता है तो महिलाएँ अपने परिवार का पेट भरने की जद्दोजहद में लग जाती हैं और ख़ुद भूखी तक रह जाती हैं। बहुपक्षीय संस्थानों को जो देश आँकड़े देते हैं उनसे पता चलता है कि दुनिया में महिलाएँ पुरुषों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा भुखमरी का शिकार हैं। इसकी वजह है कृषि क्षेत्र में वे असंगठित मज़दूर के तौर पर काम करती हैं और पितृसत्तात्मक पारिवारिक संरचनाओं में खाना खाने या मिलने में भी वे भेदभाव झेलती हैं।

जलवायु परिवर्तन का सबसे पहला प्रभाव भी कृषि व्यवस्था पर पड़ता है और यह कोई अचंभे की बात नहीं कि अपने खेतों और परिवारों को इसके कुप्रभाव से बचाने की ज़िम्मेदारी आमतौर पर महिलाओं पर आ जाती है। FAO की 2024 की दि अंजस्ट क्लाइमेट रिपोर्ट में जो आँकड़ा दिया गया है उसे पचा पाना बहुत मुश्किल है।

पहला तथ्यजब कोई प्राकृतिक आपदा (भीषण गर्मी या बाढ़ आदि) आती है तो तो महिलाओं के काम के घंटे ‘ पुरुषों के मुक़ाबले लगभग चारतीन और एक मिनट के हिसाब से प्रतिदिन अत्यधिक बारिशतापमान और सूखे की स्थिति में क्रमश: बढ़ते जाते हैं। काम के घंटे में इस इज़ाफ़े का औसत लगाएँ तो पता चलता है कि प्राकृतिक आपदाओं की वजह से होने वाले नुक़सान की भरपाई के लिए महिलाएँ पुरुषों से 55 मिनट ज़्यादा काम करने को मजबूर हैं।

 दूसरा तथ्यतापमान में 1°C (33.8 °F)  की दीर्घकालिक बढ़ोतरी ‘खेती से होने वाली आय में 23.6% और पुरुष-प्रधान परिवारों के मुक़ाबले स्त्री-प्रधान परिवारों की कुल आय में 34% गिरावट से जुड़ी है। जब भीषण गर्मी पड़ती है तो महिलाएँ अपने खेतों में काम करने की बजाय अपना श्रम काम दामों पर खेतिहर मज़दूर या घरेलू कामगार के तौर पर बेचने को मजबूर होती हैंजिससे उनकी आय और भी कम हो जाती है। 

तीसरा तथ्ययह पता चलता है कि भीषण गर्मी के दौरान पुरुषों के मुक़ाबले महिलाएँ अपने मवेशी ज़्यादा बेचती हैं जिससे पशुपालन से होने वाली आय तो कम होती ही है बल्कि कृषि में इनके प्रयोग से होने वाली उत्पादकता भी घटती है। अंतिम तथ्य, FAO की रिपोर्ट बताती है कि बाढ़ के दौरान अमीर परिवारों के मुक़ाबले ग़रीब परिवारों की कुल आय 4.4% कम हो जाती है (बाढ़ की वजह से वैश्विक दक्षिण के ग़रीब परिवारों को 21 अरब डॉलर का कुल नुक़सान होता है)। FAO के शोध का मुख्य निष्कर्ष यह है कि प्राकृतिक आपदाओं का सभी ग़रीब परिवारों पर असर पड़ता है लेकिन इस प्रभाव का जेंडर आधारित पहलू है जो महिला और पुरुष किसानों के बीच की निरंतर बढ़ती खाई को और गहरा करता है।

ऐसी परिस्थितियों में क्या किया जा सकता हैसंयुक्त राष्ट्र जैसे संस्थानों के पास रामबाण के तौर पर एक शब्द है: सशक्तीकरण। लेकिन महिलाओं का सशक्तीकरण होगा कैसेकितने ही प्रस्ताव पारित हो चुके हैं जो ‘सरकारों को जवाबदेह बनाने’ और ‘महिलाओं को अथॉरिटी वाले पदों पर पहुँचाया जाए’ जैसी बातें करते हैं। लेकिन ये सब इस समस्या की जड़ तक नहीं पहुँचते: ग्रामीण इलाक़ों में क़ानूनी दांवपेच या हिंसा के ज़रिए सभी  खेतिहर मज़दूरों को यूनियन बनाने से अमूमन रोका जाता है। 1975 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने ग्रामीण श्रमिक संगठन कन्वेंशन पारित किया जिसके अनुच्छेद 3 में कहा गया: ग्रामीण श्रमिकों की सभी श्रेणियों कोचाहे वे वेतनभोगी हों या स्वरोजगार वालेबिना किसी पूर्व अनुमति के अपनी पसंद के संगठन स्थापित करने और संबंधित संगठन के नियमों के अधीन रहते हुएउसमें शामिल होने का अधिकार है। इस कन्वेन्शन पर ख़ास ध्यान नहीं दिया गया। जिन ग्रामीण श्रमिक संगठनों के नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्याएँ की गयीं हैं अगर उनकी लिस्ट बनाई जाए तो पूरी अलमारी भर जाएगीइनमें 2023 में ग्वाटेमाला की डोरिस लिस्सेथ ऐल्डाना कैल्डरोन से लेकर 2024 में भारत के शुभकरन सिंह तक कइयों के नाम शामिल होंगे।

खेतिहर मज़दूरों को संगठित कर उनकी यूनियनें बनाए बिना उन्हें उनके अधिकार नहीं दिलाए जा सकते है। 2022 में ब्राज़ील के भूमिहीन मज़दूर आंदोलन (Movimento dos Trabalhadores Rurais Sem Terra, MST) से जुड़ी महिलाओं ने एक बेहतरीन खुला पत्र जारी किया। इसका शीर्षक था Open Letter of Love and Struggle from Landless Women ( भूमिहीन महिलाओं की ओर से प्रेम और संघर्ष का खुला पत्र ) इसका कुछ अंश नीचे दिया जा रहा है:- 
हमने कितनी बार पानी उबाला हैबच्चों की देखभाल की हैअपनी पुश्तैनी ज़मीनों को अगली पीढ़ियों के लिए तैयार किया हैनामुमकिन हालात में घर बनाए और इससे पहले कि कोई सुन पाए तनाव भरे सन्नाटे तोड़े हैं। हम तड़के अपने घरों से निकलती हैं और मौत की रेलगाड़ी रोकती हैंज़हर से भरे ट्रक रोकती हैं और कृत्रिम बीजों की बुआई रोकती हैं। मिट्टी में सने हुए हमने आँसू बहाए हैंअपने मृतक परिजनों को दफ़नाया है। संघर्ष और प्रार्थना से हमने ख़ुद को और अपनी ज़मीनों को बचाए रखने की ताक़त पाई है। अपनी आत्मा से हम मरहम बनाती हैं। हम प्रतिरोध की अपने पुरखों की परंपरा को आगे बढ़ाती हैं जो हमें अपने संघर्ष के रास्ते पर बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। चिता (ब्राज़ील का एक क़िस्म का कपड़ा) के कपड़े में क्रोधभय और ख़ुशी सभी रंगों में लिपटी हम अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। दुनिया को पता चलने दो कि अब धरती हिलाने का समय आ गया है क्योंकि संघर्षरत महिलाएँ हार मानने वाली नहीं! मार्च का महीना हमें जीवन की नई संभावनाएँ गढ़नेऔर उस विचार से लड़ने के लिए प्रेरित करता है जो हर दिन हमारी ज़िंदगी बर्बाद कर रहा है और हमारे शरीर और प्रकृति को नष्ट कर रहा है।

ताक़तवर वर्ग को इसलिए लगता है कि हम घुटने टेक देंगी क्योंकि उन्हें अब तक समझ नहीं आया कि हम सृजनकर्ता हैंहम इंसान और बीज दोनों बनाती हैं। जहाँ कहीं भी महिलाएँ हैं वहाँ उम्मीद भी होगीसंगठन भीसंघर्ष भीसाहस भी और विद्रोह भी। हमारे सामने कई चुनौतियाँ हैं लेकिन हम संघर्ष की पहली पंक्ति में खड़ी लड़ती रहेंगी क्योंकि इतिहास हमारा भी है और हम इसे गढ़ेंगी सड़कों परसंघर्ष में और खेतों में। हमसे पहले संघर्ष में शहीद हुई अपनी साथियों से हमें हिम्मत मिलती है। वे भले ही दुनिया में नहीं हैं लेकिन हमारे भीतर अब भी ज़िंदा हैं। वे सूरज की उन किरणों जैसी हैं जो युद्ध के दौर में भी रोशनी फैलाती हैंएक ऐसा सूरज जो हमें झकझोरता हैउद्वेलित करता है।

(सन्दर्भ /साभार – Tricontinental.org newsletter)

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अंतहीन मानसून, अंतहीन मुश्किलें: सिजीमाली (रायगडा-कालाहांडी) से बॉक्साइट माइनिंग के खिलाफ लोगों के विरोध पर एक अपडेट

  तिजिमाली के आदिवासी और दलित समुदाय इस इलाके में वेदांता के प्रस्तावित बॉक्साइट माइनिंग प्रोजेक्ट का ज़ोरदार विरोध कर रहे हैं। इस संघर्ष पर...