वैसे बड़े बांधों का विरोध उन्हें ‘नए भारत के तीर्थ’ के तमगे से नवाजे जाने के बरसों
पहले शुरु हो गया था, लेकिन आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मापदंडों
पर बाकायदा समीक्षा करके उनको खारिज करने का सिलसिला अस्सी के दशक में शुरु हुए ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ से माना जाता है। क्या रहा इन
चार दशकों का हासिल?
नर्मदा घाटी की तीन पीढ़ियों ने सामाजिक न्याय और पर्यावरण
संरक्षण की एक लौ को बड़ी शिद्दत से जलाए रखा है। करीब 40 बरस में मशाल बन चुके ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ का सफर छोटा नहीं है। ‘सरदार सरोवर बाँध’ की मुखालिफत से शुरु हुई इस
लड़ाई के पहले पर्यावरण शब्द नया था, हालांकि इसे लेकर ‘मूलशी बांध विरोध,’ ‘चिपको आंदोलन,’ ‘सेव सायलेंट वेली’ और ‘मिट्टी बचाओ अभियान’ जैसे आंदोलन अपनी छाप छोड़
चुके थे। ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ ने ‘सरदार सरोवर’ से प्रभावित होने वाले
निमाड-मालवा के आदिवासी-किसानों के पुनर्वास और वित्तीय मामलों के साथ प्रभावितों
की रोजी-रोटी, उपजाऊ खेती और जंगलों के विनाश का मामला भी उठाया था। आंदोलन की
सक्रियता के कारण विकास परियोजनाओं को पर्यावरणीय नजरिए से भी देखा-परखा जाने लगा।
आंदोलन के प्रभाव क्षेत्र में लोग अपने अधिकारों के प्रति सजग हुए
और उन्होंने विस्थापन के अलावा अन्य मामलों को भी उठाया। यह सिलसिला अभी भी
जारी है। ‘सरदार सरोवर’ के संघर्ष से प्रेरणा लेकर नर्मदा घाटी के ही ‘बरगी,’ ‘भीमगढ़,’ ‘इंदिरा सागर,’ ‘औंकारेश्वर,’ ‘महेश्वर,’ ‘अपर वेदा,’ ‘लोअर गोई,’ ‘मान,’ ‘जोबट’ आदि बाँधों के प्रभावित अपने
अधिकारों के लिए खड़े होते गए और ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ का हिस्सा बने। ऐसे संघर्ष
देश के अन्य हिस्सों में भी दिखाई दिए। यह एक आंदोलन के जनांदोलन बनने का उदाहरण
है।
‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ का केन्द्र पश्चिमी मध्यप्रदेश, उत्तरी महाराष्ट्र और पूर्वी
गुजरात का पहाड़ी आदिवासी इलाका और मैदानी निमाड़ इलाके का ग्रामीण अंचल रहा है।
इन इलाकों में आमतौर पर महिलाओं की भागीदारी कम दिखाई देती है, लेकिन आंदोलन ने वैचारिक और
रणनैतिक वजहों से महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की। नतीजे में सार्वजनिक
कार्यक्रमों में आधी से अधिक संख्या में महिलाएँ दिखाई देती रहीं। महिलाओं की यह
भागीदारी केवल सार्वजनिक प्रदर्शनों तक सीमित नहीं थी, बल्कि वे निर्णय प्रक्रिया
में भी हिस्सा लेती थीं। आंदोलन के माध्यम से हुआ महिला सशक्तिकरण घरेलू मामलों
से लेकर गाँव-समाज में भी दिखाई दिया।
जो चिंताएँ भारत की बाँध परियोजना में देखी गईं, वे ही दुनिया की अन्य बाँध
परियोजनाओं में भी थीं। इसलिए आंदोलन ने सम-विचारी समूहों के साथ मिलकर विश्वबैंक
को बाध्य किया कि वह अपनी मौजूदा कर्ज नीति में बदलाव करे, ताकि दुनिया में कहीं भी
सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय विनाश को रोका जा सके। विश्वबैंक को इसके
लिए राजी होना पड़ा और ‘इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़रवेशन ऑफ नेचर’ (आईयूसीएन) के साथ मिलकर बड़े
बांधों के सामाजिक, पर्यावरणीय और आर्थिक प्रभावों की समीक्षा हेतु ‘विश्व बाँध आयोग’ का गठन करना पड़ा। इसमें
आंदोलन की ओर से मेधा पाटकर को आयुक्त के रुप में शामिल किया गया। दक्षिण अफ्रीका
के जल-संसाधन मंत्री कादर अस्माल की अध्यक्षता वाले ‘विश्व बाँध आयोग’ की रिपोर्ट के बाद विश्वबैंक
को अपनी कर्ज नीति में बदलाव करना पड़ा और उसने कई सालों तक बाँध परियोजनाओं को
कर्ज देना बंद रखा।
आंदोलन ने ऐसी सरकारें देखी हैं जिन्होंने प्रभावितों के जीवन, रोजी-रोटी और अधिकारों की
लड़ाई को खारिज किया था। कुछ सरकारों ने आंदोलनकारियों के खिलाफ दमनचक्र भी चलाया, लेकिन जिन सरकारों ने
उपेक्षा नहीं की, वे भी प्रभावितों को उनके अधिकार देने में अनिच्छुक ही रहीं।
प्रभावित किसानों को अपने ही राज्य में ‘जमीन के बदले जमीन’ देने की बंधनकारी नीति के
बावजूद मध्यप्रदेश की सरकारों ने जमीन देना कभी स्वीकार नहीं किया। मध्यप्रदेश
में उद्योगपतियों को आसानी से जमीन, पानी और बिजली उपलब्ध
करवाने वाली सरकार सुप्रीम कोर्ट में शपथ-पत्र देती थी कि विस्थापितों के लिए
जमीन उपलब्ध नहीं है। इसके बावजूद आंदोलन करीब 20 हजार परिवारों को जमीन दिलवाने में सफल रहा। इनमें
बड़ी संख्या भूमिहीन परिवारों की है। यह छोटी उपलब्धि नहीं है।
कुछ हजार परिवारों को और भी
जमीन मिल सकती थी यदि आंदोलन की एक रणनीतिक चूक न होती। सर्वोच्च न्यायालय ने
अक्टूबर 2001 के अपने आदेश में पुनर्वास नीति को बरकरार रखा था। इस कारण मध्यप्रदेश
सरकार के लिए भी खेती की जमीन देकर पुनर्वास करने की बाध्यता थी। सरकार तो किसी
भी कीमत पर प्रभावितों को जमीन देने के पक्ष में नहीं थी इसलिए जमीन के बदले 5 लाख 58 हजार रुपए अनुदान का विकल्प
दिया। अनुदान राशि एकमुश्त न देकर 2 किश्तों में भुगतान की गई और अनुदान की पहली किश्त
यानी आधी अनुदान राशि से पूरी 5 एकड़ जमीन खरीदकर रजिस्ट्री करवाने की शर्त रखी गई। अनुदान
भुगतान का यह तरीका व्यवहारिक नहीं था। संपत्ति की रजिस्ट्री उधारी में नहीं
होती।
इस अतार्किक शर्त का फायदा शातिर अधिकारियों और दलालों के गठजोड़
ने उठाया। गठजोड़ ने करीब 3 हजार से अधिक आदिवासियों और
किसानों की फर्जी रजिस्ट्री करवाते हुए खूब चाँदी काटी और प्रभावितों को जमीन से
वंचित कर दिया। कुछ सालों तक चले इस फर्जीवाड़े में आंदोलन की भूमिका पूर्ववत् नगद
अनुदान के विरोध की रही। आंदोलन की इस भूमिका ने फर्जीवाड़ा आसान कर दिया, क्योंकि तब फर्जीवाड़े में
शामिल गिरोह को आंदोलन की निगरानी का डर भी नहीं बचा था। 5 लाख 58 हजार रुपए की अनुदान राशि
से तब 5 एकड़ जमीन मिलना संभव था।
उस समय आंदोलन यदि अनुदान राशि से जमीन खरीदने में प्रभावितों की मदद करता तो
फर्जीवाड़े पर भी लगाम लगती और कुछ अधिक प्रभावितों को जमीन मिल पाती। हालांकि
आंदोलन के प्रयासों से फर्जीवाड़े की जाँच के लिए उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त
न्यायाधीश श्रवणशंकर झा की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया गया था, लेकिन फर्जीवाड़े में शामिल
किसी अधिकारी-कर्मचारी के खिलाफ सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की।
मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के आदिवासी इलाके में एक तो स्कूल ही नहीं थे और जो थे
वे भी कागजों पर चलते थे। इन स्कूलों को शुरु करवाने के लिए आंदोलन ने काफी
प्रयास किए, लेकिन सफलता नहीं मिली। अंत में आंदोलन ने निर्णय लिया कि उसे ही
संघर्ष के साथ शिक्षा का मोर्चा भी खोलना पड़ेगा। इस प्रकार “पढ़ाई-लड़ाई–साथ-साथ” के उद्देश्य को लेकर ‘जीवन-शालाओं’ की शुरुआत हुई। इन ‘जीवन-शालाओं’ ने न सिर्फ उस इलाके की पहली
पीढ़ी को शिक्षित किया, बल्कि उनसे निकले कई छात्र-छात्राएं आज शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर और राज्य स्तर के
खिलाड़ी हैं।
‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ अपने चार दशकों के सफर में
सामाजिक न्याय, पर्यावरण संरक्षण, सही जल-प्रबंधन, आदिवासी-किसानों-महिलाओं के सशक्तिकरण और मानवाधिकारों की लड़ाई का
एक जीवंत प्रतीक बना है। दुनिया में कम लोग हैं जो सरकारी दमनचक्र और उपेक्षा के
बावजूद टूटे नहीं और संघर्ष की जलती मशाल अपनी अगली पीढियों को सौंपते रहे। नर्मदा
घाटी के साधारण से ग्रामीण किसान-आदिवासी, मछुआरों, खेतीहर मजदूरों आदि ने इस
आंदोलन को एक बाँध से कहीं आगे ले जाकर विशाल परियोजनाओं के प्रभावों और उनकी
समीक्षा तक पहुंचा दिया। इन साधारण लोगों का असाधारण, अदम्य साहस और उनके द्वारा
जलाई मशाल आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहे
( सन्दर्भ /साभार –सर्वोदय
प्रेस सर्विस-रेहमत मंसूरी )
धरती पानी से संबंधित सूचनाओ,समाचारों और सन्दर्भों का संकलन–पानी पत्रक पानी पत्रक-252 ( 4
अक्टूबर 2025) जलधारा अभियान,221,पत्रकारकॉलोनी,जयपुर-राजस्थान,302020,संपर्क-उपेन्द्र शंकर-7597088300.मेल-jaldharaabhiyan.jaipur@gmail.com
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