वाराणसी के मल्लाह
29 वर्षीय विश्वकर्मा साहनी कहते हैं, 'हम पानी के जीव हैं।' साहनी वाराणसी के लगभग 8,000 मल्लाह में से हैं, वे एक नाविक हैं , जिनका जीवन गंगा से गहराई से
जुड़ा हुआ है - भारत में पवित्र मानी जाने वाली नदी , जिसके प्रति वे गहरी श्रद्धा
रखते हैं। उनके लिए, गंगा केवल एक नदी नहीं है; यह उनकी जीवन दायनी है।
हिमालय से पूर्व की ओर अपनी
यात्रा पर, गंगा पूर्वोत्तर हिंद महासागर में
बंगाल की खाड़ी में बहने से पहले 2,500 किमी (1,550 मील) से अधिक की दूरी तय करती है।
अपने मार्ग के साथ, यह कई क्षेत्रों से होकर गुजरती है, जिसमें प्राचीन शहर वाराणसी भी शामिल
है, जिसे हिंदी में काशी या बनारस के नाम
से भी जाना जाता है। वाराणसी ने लंबे समय
से इतिहासकारों, मानवविज्ञानियों, कलाकारों और कहानीकारों को आकर्षित
किया है और इसे दुनिया के सबसे पुराने बसे हुए शहरों में से एक के रूप में माना
जाता है। यह भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का निर्वाचन क्षेत्र भी है, जो 2014 में वाराणसी को क्योटो-शैली के स्मार्ट शहर में बदलने के वादे के
साथ सत्ता में आए थे, हालांकि, नाविकों के अनुसार , वाराणसी के नाविकों के जीवन को काफी हद तक नजरअंदाज किया गया है ।
‘किस तरह सरकार कॉरपोरेट्स के साथ मिलकर
अपने ही नागरिकों की आजीविका छीनने की साजिश करती है ? राज्य की दमनकारी और भेदभावपूर्ण
नीतियों के खिलाफ समुदाय के प्रतिरोध में प्रमुख भूमिका निभाने वाले प्रमोद माझी जानना
चाहते हैं।
मल्लाह समुदाय ने न केवल औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन के तहत बल्कि
उत्तर-औपनिवेशिक भारत में सामाजिक और राजनीतिक अधीनता के परिणामस्वरूप भी उत्पीड़न
का सामना किया।
ब्रिटिश शासन के तहत समुदाय में व्याप्त शराब और उच्छर्न्खालता के चलते मल्लाहों को एक ‘आपराधिक जाति’
के रूप में वर्गीकृत किया गया था .हिंदू
समाज के भीतर, उन्हें ‘निम्न जाति’
का दर्जा दिया गया है।
अधिकांश नाविक गरीबी में
जीवन यापन करते हैं, क्योंकि नाव चलाने से उनकी कमाई अक्सर
खुद को और अपने परिवार को पालने के लिए अपर्याप्त होती है।
हर साल अगस्त से अक्टूबर तक, घाट पूरी तरह से जलमग्न हो जाते हैं। इस अवधि के दौरान, सरकार नौका विहार पर पूर्ण प्रतिबंध
लगा देती है, जिससे मल्लाह साल के बाकी दिनों की बचत
पर ही निर्भर रहने को मजबूर हो जाते हैं। यह अवधि उनके लिए साल का सबसे
चुनौतीपूर्ण समय होता है।
अपनी आय में वृद्धि के लिए, वे अक्सर अतिरिक्त काम करते हैं, जैसे कि वाराणसी के सबसे पवित्र घाटों में से एक मणिकर्णिका घाट, जहां चौबीसों घंटे दाह संस्कार किए
जाते हैं, पर दाह संस्कार में इस्तेमाल होने वाली जलाऊ लकड़ी की ढुलाई करना. यह
काम बहुत थका देने वाला है और इससे लगभग 300 रुपये प्रति दिन की कमाई होती है, जो उनके शरीर पर काफी असर डालता है, क्योंकि वे अक्सर 100 किलोग्राम तक का भार ढोते हैं।
मल्लाहों में सबसे ज़्यादा गरीब, गोताखोर (सिक्का गोताखोर) हैं, जिनके पास अपनी कोई नाव नहीं होती इसलिये
इसके बजाय वे तीर्थयात्रियों द्वारा धार्मिक प्रसाद के रूप में नदी में फेंके गए
सिक्कों को इकट्ठा करने के लिए गंगा में गोता लगाकर जीविका कमाते हैं।
नदी के साथ अपने घनिष्ठ संबंध के कारण, कई मल्लाहों के पास असाधारण गोताखोरी कौशल होते हैं और अक्सर
अधिकारियों द्वारा नदी से शवों को निकालने के गंभीर कार्य को करने के लिए नियुक्त
किए जाते हैं, आमतौर पर थोड़े से पैसे या सस्ती शराब
की बोतलों के बदले में। गंगा में मौत एक आम बात है। कुछ लोग आकस्मिक मृत्यु को
प्राप्त होते हैं, जबकि अन्य लोग इस विश्वास के कारण नदी
में अपना जीवन समाप्त करना चुनते हैं कि पवित्र नदी में मृत्यु मोक्ष (मुक्ति)
लाती है।
55 वर्षीय गोताखोर शिवनाथ माझी कहते हैं, 'शव [लाश] का स्पर्श सहन करना कठिन है,' जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों में कई
लोगों को डूबने से बचाया है और अनगिनत शव बरामद किए हैं, जिनमें से कई पहले से ही सड़ने की
स्थिति में हैं। 'पैसे की सख्त जरूरत ही हमें ऐसे काम
करने के लिए आगे बढ़ाती है।'
मल्लाह अनिश्चितता की रस्सी पर चलते हैं, जहाँ मौत कई रूपों में दस्तक दे सकती
है; जिनमें बीमारी, डूबना और गरीबी सबसे आम हैं।
स्वास्थ्य सेवा की कमी और मुख्य कमाने वाले को खतरनाक काम के कारण
खोना, पूरे परिवार को गंभीर वित्तीय संकट में डाल सकती है। 35 वर्षीय सुमन साहनी अपने पति मोहन
साहनी की 2022 में गले के कैंसर से हुई मौत के बारे
में बात करते हुए कहती हैं,
‘सब
कुछ बिखर गया।’ मोहन साहनी के बढ़ते इलाज के खर्च ने
उनकी पत्नी, तीन बच्चों की माँ को उनकी नाव बेचने
पर मजबूर कर दिया। घर के खर्चों को पूरा करने के लिए, उनके 17 वर्षीय बेटे सनी साहनी ने गोताखोरी शुरू कर दी है, जबकि उनकी 15 वर्षीय बेटी कुसुम साहनी घाटों के पास
माला बेचती है। सुमन कहती हैं, ‘हर सुबह जब सनी नदी में प्रवेश करता है, तो मुझे डर लगता है कि वह ज़िंदा बाहर
न निकल पाए तो ?
अपनी कठिनाइयों के बावजूद, समुदाय के कई लोग सम्मान और उम्मीद के साथ जीवन जीने का प्रयास करते
हैं । शराब के अत्यधिक सेवन के कारण लीवर की बीमारी से अपने पति राजकुमार साहनी को
खोने के बाद, 51 वर्षीय सुशीला देवी ने सुनिश्चित किया
कि उनकी बेटियों को सरकारी स्कूल में शिक्षा मिले। छह बच्चों की माँ देवी कहती हैं, ‘वह अपनी कमाई का हर एक पैसा शराब पर
उड़ा देता था।’ समुदाय की महिलाओं के लिए अपने घर की
आय में वृद्धि के लिए विभिन्न नौकरियों में संलग्न होना आम बात है, लेकिन देवी का परिवार समुदाय के उन कुछ
परिवारों में से एक है, जहाँ युवतियाँ वास्तव में काम करने के
लिए घर से बाहर जाती हैं।
जबकि वह खुद अपने घर में मोतियों की माला बनाकर लॉकेट बनाती हैं, जिन्हें बाद में थोक बाजार में बेचा
जाता है, उनकी बेटी जानकी शहर के एक शॉपिंग मॉल
में सेल्सपर्सन के रूप में काम करती है। वह कहती हैं, ‘मुझे कभी शिक्षा का अवसर नहीं मिला, लेकिन मैंने सुनिश्चित किया कि मेरी
लड़कियों को शिक्षा मिले।’
2024 के लोकसभा चुनावों से पहले, यह आशा थी कि ऐसे में मल्लाह समुदाय का अपने सदस्यों के अधिकारों और आजीविका के
लिए संघर्ष न केवल वाराणसी के घाटों पर बल्कि इस ऐतिहासिक शहर के मतदान केंद्रों
पर भी गूंजेगा.
(सन्दर्भ – अल जजीरा में उदय नारायणन के
लेख “गंगा के बच्चे: वाराणसी के नाविक”
का हिंदी अनुवाद, गौरी लंकेश न्यूज़,रेड डिट से
पहला और चौथा चित्र )
पानी से संबंधित सूचनाओ,समाचारों और सन्दर्भों का संकलन –पानी पत्रक
पानी पत्रक (163-8 अगस्त 2024)जलधारा अभियान, 221,पत्रकार कॉलोनी,जयपुर-राजस्थान,302020,संपर्क-उपेन्द्रशंकर-7597088300.मेल-jaldharaabhiyan.jaipur@gmail.com
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