जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक
आपदाएं अब सिर्फ पर्यावरणीय नहीं, बल्कि मानवीय संकट बन चुकी हैं।
पिछले एक दशक में दुनिया भर में करोड़ों लोग बाढ़, सूखा, तूफान और समुद्र स्तर बढ़ने के
कारण अपने घरों से उजड़ चुके हैं। विशेष रूप से एशिया और अफ्रीका के गरीब देशों
में पर्यावरणीय शरणार्थियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, जिनके लिए न तो नीति है, न पहचान, न ही कोई स्थायी समाधान।
दुनिया में प्राकृतिक आपदाओं के कारण पिछले एक दशक
(2015 से 2024) के दौरान आंतरिक विस्थापन के
चलते पर्यावरण शरणार्थियों climate refugees की संख्या में भारी वृद्धि
दर्ज की गई है। इस कारण कुछ क्षेत्रों में अपेक्षाकृत अनेक बार प्राकृतिक आपदाओं
के तीव्र और व्यापक खतरे उत्पन्न हुए। परिणामस्वरूप 210 देशों में 26.48 करोड़ लोगों को आंतरिक
विस्थापन झेलना पड़ा है, जो न केवल एक रिकॉर्ड के रूप
में सर्वाधिक है, बल्कि 2.65 करोड़ के दशक़ीय औसत से कहीं अधिक है। इस मामले में
पूर्व और दक्षिण एशिया सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र रहे। देशों के स्तर पर बीते एक
दशक में चीन,
फिलीपींस, भारत, बांग्लादेश और अमेरिका में
दर्ज विस्थापन के आंकड़े सबसे ज़्यादा हैं। चीन में 4.69 करोड़ और फिलीपींस में 4.61 करोड़ लोगों को अपने ही देश में विस्थापन का दर्द
झेलना पड़ा है। इसी कालखंड में भारत में बाढ़, तूफान और भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं के चलते 3.23 करोड़ लोगों को आंतरिक विस्थापन का संकट उठाना पड़ा
है। किसी देश के अंदर विस्थापित होने वाले लोगों की संख्या के लिहाज से चीन और
फिलीपींस के बाद भारत विश्व में तीसरे स्थान पर है। जिनेवा स्थित आंतरिक विस्थापन
निगरानी केंद्र (IDMC) की एक नई रिपोर्ट में यह
दावा किया गया है
विज्ञान पत्रिका साइंस में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि यदि वैश्विक तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है तो हिंदू कुश हिमालय के हिमखंडों की बर्फ इस सदी के अंत तक 75 प्रतिशत तक पिघल जाएगी। हिंदू कुश पर्वत के ये ग्लेशियर कई नदियों के उद्गम स्थल हैं और ये नदियाँ 2 अरब लोगों की आजीविका का साधन बनती हैं। यदि दुनिया के देश इस तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर सकें, तो हिमालय और काकेशस पर्वत में स्थित हिमनदों की बर्फ का 40 से 45 प्रतिशत भाग सुरक्षित रह सकता है। इसके विपरीत यदि इस सदी के अंत तक दुनिया 2.60 डिग्री सेल्सियस तक गर्म होती है तो वैश्विक स्तर पर ग्लेशियर की बर्फ का केवल एक चौथाई हिस्सा ही बचेगा।
अध्ययन में कहा गया है कि मानव समुदायों के लिए सबसे अहम ग्लेशियर क्षेत्र — जैसे कि यूरोपीय आल्प्स, पश्चिमी अमेरिका और कनाडा की पर्वत श्रृंखलाएं एवं आइसलैंड — बुरी तरह प्रभावित होंगे। दो डिग्री सेल्सियस तापमान पर ये क्षेत्र अपनी समूची बर्फ खो सकते हैं और 2020 के स्तर पर केवल 10-15 प्रतिशत ही बर्फ बची रह पाएगी। स्कैंडिनेविया पर्वत का भविष्य और भी भयावह हो सकता है, क्योंकि इस तापमान में वहाँ के ग्लेशियरों पर बर्फ बचेगी ही नहीं। 2015 के पेरिस समझौते द्वारा निर्धारित 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य तक तापमान को सीमित करने से सभी क्षेत्रों में कुछ ग्लेशियरों पर बर्फ को संरक्षित करने में मदद मिलेगी। ये हालात मानव जीवन को अभूतपूर्व रूप में प्रभावित कर खतरे में डाल देंगे। इस कारण अकेले एशिया में 2 अरब लोगों को आजीविका का संकट झेलना पड़ सकता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि 2050 तक दुनिया भर में 25 करोड़ लोगों को अपने मूल निवास स्थलों से पलायन को मजबूर होना पड़ सकता है। जलवायु परिवर्तन की मार मालदीव और प्रशांत महासागर क्षेत्र के कई द्वीपों के वजूद को पूरी तरह लील सकती है। इन्हीं आशंकाओं के चलते मालदीव की सरकार ने पर्यावरण संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण पहल करते हुए समुद्र की गहराई में बैठकर औद्योगिक देशों का ध्यान आकर्षित किया था ताकि ये देश कार्बन उत्सर्जन में जरूरी कटौती कर दुनिया को बचाने के लिए आगे आएं।
इस बदलाव से बांग्लादेश को बड़ा संकट झेलना होगा, क्योंकि यहाँ आबादी का घनत्व
बहुत अधिक है, इसलिए बांग्लादेश के लोग
बड़ी संख्या में इस परिवर्तन की चपेट में आएँगे। यहाँ तबाही का तांडव इतना भयानक
होगा कि उसका सामना करना नामुमकिन होगा। भारत की सीमा से लगा बांग्लादेश तीन
नदियों के डेल्टा में बसा है। इसके दुर्भाग्य की वजह भी यही है। इस देश के
ज़्यादातर भूखंड समुद्र तल से बमुश्किल 20 फीट की ऊँचाई पर बसे हैं। इसलिए धरती के बढ़ते
तापमान के कारण जलस्तर ऊपर उठेगा तो सबसे ज़्यादा जलमग्न भूमि बांग्लादेश की होगी।
जलस्तर बढ़ने से कृषि का रकबा घटेगा। नतीजतन 2050 तक बांग्लादेश की धान की
पैदावार में 10 प्रतिशत और गेहूँ की पैदावार में 30 प्रतिशत तक की कमी आएगी। इक्कीसवीं सदी के अंत तक
बांग्लादेश का एक चौथाई हिस्सा पानी में डूब जाएगा। वैसे तो मोज़ांबिक से तुवालू
और मिस्र से वियतनाम तक कई देशों में जलवायु परिवर्तन के कारण पलायन होगा, लेकिन सबसे ज़्यादा पर्यावरण
शरणार्थी बांग्लादेश के होंगे। एक अनुमान के मुताबिक इस देश से दो से तीन करोड़
लोगों को पलायन को मजबूर होना पड़ेगा।
बांग्लादेश पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का अध्ययन
करने वाले जेम्स पेंडर का मानना है कि 2080 तक बांग्लादेश के तटीय
इलाकों में रहने वाले पाँच से दस करोड़ लोगों को अपना मूल क्षेत्र छोड़ना पड़ सकता
है। देश के तटीय इलाकों से ढाका आने वाले लोगों की तादाद लगातार बढ़ रही है।
अमेरिका की प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका साइंटिफिक अमेरिकन ने बांग्लादेश के पर्यावरण
शरणार्थियों पर एक विशेष रिपोर्ट में कहा है कि बूढ़ी गंगा किनारे बसे ढाका शहर
में हर साल पाँच लाख लोग आते हैं। इनमें से ज़्यादातर तटीय और ग्रामीण इलाकों से
होते हैं। यह संख्या वाशिंगटन डीसी की जनसंख्या के बराबर है।
इस व्यापक बदलाव का असर कृषि पर स्पष्ट रूप से
दिखाई देगा। खाद्यान्न उत्पादन में भारी कमी आएगी। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध
संस्थान के मुताबिक अगर ऐसे ही हालात रहे तो एशिया में एक करोड़ दस लाख, अफ्रीका में एक करोड़ और
बाकी दुनिया में चालीस लाख बच्चों को भूखा रहना होगा। संयुक्त राष्ट्र के एक आकलन
के मुताबिक 2050 तक दुनिया की आबादी 9 अरब 20 करोड़ हो जाएगी। उभरते जलवायु संकट और बढ़ते
पर्यावरण शरणार्थियों के चलते इतने लोगों को अनाज उत्पादन के लिए कृषि योग्य भूमि
उपलब्ध कराना असंभव होगा। अतः पर्यावरण शरणार्थियों refugee
crisis के इस संकट से निपटना तब और
मुश्किल हो जाएगा, जब अमेरिका जैसे पूंजीवादी
देश राहत कोष घटाकर इन शरणार्थियों को भगवान भरोसे छोड़ देने का काम कर रहे हैं।
(सन्दर्भ / साभार –सर्वोदय प्रेस सर्विस में प्रमोद भार्गव का लेख ,Global
Report on Internal Displacement 2025)
धरती पानी से संबंधित सूचनाओ,समाचारों और सन्दर्भों का
संकलन–पानी पत्रक
पानी पत्रक (237-12 जून 2025) जलधाराअभियान,221,पत्रकारकॉलोनी,जयपुर-राजस्थान,302020,संपर्क-उपेन्द्र शंकर-7597088300.मेल-jaldharaabhiyan.jaipur@gmail.com
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